मानवीय संवेदना

सवालों के घेरे में पत्रकारिता

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ मानते हैं और है भी क्योंकि पत्रकारों को ही वह आजादी मिली हुई है जो किसी को नहीं मिली। लोकतंत्र के तीन स्तम्भ-न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की अपनी-अपनी सीमाएं हैं और सीमाओं का अतिक्रमण करने पर विवाद भी उत्पन्न होते हैं। इन दिनों तो न्यायपालिका को लेकर ही विवाद चल रहा है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग का नोटिस राज्यसभा में दिया था लेकिन वहां उपराष्ट्रपति जो राज्य सभा के सभापति भी होते हैं, उन्होंने कांग्रेस के इस नोटिस को खारिज कर दिया। कांग्रेस ने इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में ही इस नोटिस को खारिज करने के विरोध में याचिका दायर की थी। यह तो अच्छा हुआ कि कांग्रेस के वकील कपिल सिब्बल ने उस याचिका को नाटकीय ढंग से वापस लेे लिया। विधायिका के विवादों का तो अंत ही नहीं है लेकिन अब पत्रकारों पर भी कांग्रेसी, भाजपाई और अन्य दलों के समर्थक होने का आरोप लगने लगा है। चुनाव के समय पेड न्यूज के लिए प्रेस काउंसिल तक को शर्मिन्दा होना पड़ा था। इस प्रकार पत्रकारिता सवालों के घेरे में आ गयी है। अब 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाने का भी कोई अर्थ नहीं रह गया है।
पहले ऐसा नहीं था। पत्रकार स्वतंत्र और निर्भीक रूप से लिखते थे और उनकी बात पर जनता यकीन भी करती थी। अब भी जनता की मजबूरी है कि समाचार पत्र-पत्रिकाओं और दूरदर्शन के समाचार चैनलों से जो खबरें प्रकाशित और प्रसारित की जाती हैं, उन पर विश्वास करना ही पड़ता है। बाद में खबरों के तथ्य बदलते रहते हैं क्योंकि पत्रकारिता में स्पद्र्धा इतनी ज्यादा है कि जल्दी से जल्दी खबर देना मीडिया की जरूरत बन गया है। इस प्रकार समाचार का तथ्य तलाश करने का अवसर ही नहीं रहा। सबसे पहले कौन खबर दे रहा है, इसकी होड़ लगी रहती है। समाचार-पत्र- पत्रिकाएं और दूरदर्शन के खबरिया चैनल भी सबसे ज्यादा प्रमुखता राजनीति को ही देते हैं। सत्तर से अस्सी फीसद खबरें राजनीति की रहती हैं और पत्रकारिता पर सवाल भी सबसे ज्यादा राजनीतिक ही उठाते हैं। समूची पत्रकारिता पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। पत्रकारिता धर्म का निर्वाह करते हुए कितने ही पत्रकारों को अपना बलिदान देना पड़ रहा है। हम उन्हें शहीद का दर्जा देना तो दूर उनके परिवारों को सरकार से कोई विशेष मदद भी नहीं दिलवा पाते। अभी कुछ दिन पहले ही हमारे देश के कथित आध्यात्मिक कथावाचक बापू आसाराम को एक नाबालिग छात्रा से दुराचार के आरोप में सजा हुई है। इस मामले को भी एक पत्रकार ने ही निर्भीकता से छापा था। उसे धमकी भी मिलीं और प्रलोभन भी दिया गया लेकिन वह पत्रकारिता धर्म से नहीं डिगा।
यह पत्रकारिता धर्म कमजोर जरूर पड़ गया है क्योंकि पत्रकारिता अब मिशन नहीं रह गयी, एक फैशन बन गया और उद्योग की तरह स्थापित हो गया है। बड़े-बड़े समाचार प्रतिष्ठान पत्रकारिता की आड़ में उद्योग-धंधे चलाते हैं, स्कूल-कालेज खोले हुए हैं। पहले शुरुआत करते है। पत्रकारिता के प्रशिक्षण की। इसके बाद सभी व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलने लगते हैं। इस प्रकार सरकार से उपकृत होते हैं तो सरकार के खिलाफ लिखने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। राजनीति को आलोचना करने का यहीं से अवसर मिलता है। अखबार और चैनल सत्ता का समर्थन करते हैं तो विपक्षी दल उन्हंे सरकार का भोंपू बताते हैं और जब विपक्ष के लोग सत्ता में बैठते हैं तो उनके समर्थक भी खुलकर सामने आ जाते हैं। इस प्रकार समाज के सामने सच्चाई लाने वाला मीडिया विवादों में घिर जाता है। मजे की बात कि राजनेता अक्सर यह उपदेश भी देते हैं कि मीडिया को अपना धर्म ठीक से निभाना चाहिए। हालांकि वे यह भी मानते हैं कि पत्रकारों के सामने काफी चुनौतियां हैं।
इनमें कई चुनौतियां तो पत्रकारों ने स्वयं पैदा की हैं और कुछ उनकी मजबूरी है। मजबूरी यह कि समाचार-पत्र- पत्रिकाओं में नौकरी करना है तो वहां के मालिकानों कीे बात माननी ही पड़ेगी। नौकरी नहीं करेंगे तो परिवार का पालन-पोषण ही मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता करने के लिए अध्ययन और भ्रमण की जरूरत होती है और इन सबके लिए पैसा चाहिए। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है तो नौकरी की शर्तें माननी ही पड़ेगी। इस प्रकार पत्रकारिता एक नौकरी हो जाती है। पत्रकारों के सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं होती क्योंकि उन्हंे रात और दिन में घर से बाहर रहना पड़ता है और समाज विरोधी या अनैतिक कार्यों में लगे लोगों के बारे में लिखने पर पत्रकारों को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है। कितने ही पत्रकारों की इसी के चलते हत्या हो चुकी है। पत्रकारों के संगठन भी है लेकिन वे कुछ कार्यक्रमों और सरकार से सुविधा पाने तक ही सीमित रहते हैं। इन संगठनों ने अपने सदस्यों की एक ऐसी फौज खड़ी कर ली है जो पत्रकारिता से कोसों दूर है। देश भर में छोटे-बड़े कितने अखबार, पत्रिकाएं और समाचार चैनल हैं, इनकी गिनती की जाए तो लाखों में नहीं करोड़ों तक पहुंच जाएगी।
हम यहां पर सभी भाषाओं के अखबारों की बात कर रहे हैं और हजारों की संख्या में ही ऐसे नामी-गिरामी अखबार हैं जिन्हंे लोग जानते भी हैं लेकिन लाखों की संख्या में वे अखबार और पत्रिकाएं हैं जिनके बारे में राज्यों के सूचना विभाग और सूचना निदेशालय को ही पता रहता है। ये अखबार विशुद्ध धंधा करते हैं। गिनती की कापियां छपवाकर अपने को जीवित रखते हैं और समय-समय पर सरकार से विज्ञापन लेते हैं। इनको चलाने वाले मान्यता प्राप्त पत्रकार का कार्ड बड़ी आसानी से बनवा लेते हैं। दूसरी तरफ वे पत्रकार जो समाचार पत्रों से रिटायर हो गये अथवा किसी समाचार पत्र में नौकरी नहीं कर रहे हैं, उनको सरकार से मान्यता नहीं मिल पाती। उंगली पर गिने जाने वाले ऐसे पत्रकार है। जो मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं और पत्रकारिता करते भी हैं। पत्रकारों ने इसके लिए समितियां भी बना रखी हैं जिनमें सूचना निदेशक और सूचना अधिकारी प्रमुख होते हैं लेकिन मान्यता उन्हीं को मिल पाती है जो जुगाड़ करने में माहिर हैं। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के मालिक अपने चहेतों को मान्यता दिलाने में रुचि रखते हैं भले ही पत्रकारिता से उनका कोई सरोकार नहीं है। सरकार ने पत्रकारों को कई सुविधाएं दे
रखी हैं। ये सुविधाएं इसीलिए मिली हैं कि पत्रकार किसी विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिए यात्रा कर सकें, उनका इलाज सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में ही और सरकारी-गैर सरकारी क्षेत्र से जो जानकारी लेना चाहें, उसे दिलाने में प्रशासन मदद करे। सरकार द्वारा दी गयी इस सुविधा का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है और यह बात सरकार भी जानती है, पत्रकारों के संगठन भी जानते हैं।
पत्रकारिता चिंतन-मनन करने के लिए 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। इसी दिन पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने 1826 में हिन्दी समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी के समान है। यहां कहते हैंे कि सृष्टि के सबसे पहले पत्रकार नारद जी थे। हमारे देश में बहुत दिनों तक अंग्रेजी पत्रकारिता का वर्चस्व कायम रहा लेकिन 19वीं शताब्दी में हिन्दी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के वर्चस्व को तोड़ दिया। हमारे देश में आधुनिक पत्रकारिता का उदय हालांकि अट्ठारहवीं शताब्दी के चैथे चरण में हुआ। हिन्दी साहित्यकार भारतेन्दु ने 1873 में हरिश्चन्द्र मैगजीन की शुरुआत की थी। इस बीच उदन्त मार्तण्ड और हरिश्चन्द्र मैगजीन के बीच काफी समयान्तर रहा। इसके बाद देश के भाषाई अखबार निखरते चले गये लेकिन देश को स्वतंत्रता मिलने के काफी वर्षों बाद भी पत्रकारिता की गरिमा बनी रही। स्वतंत्रता से पूर्व तो ब्रिटिश साम्राज्य पत्रकारिता से डर गया था और उसने प्रताड़ित करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी। इस तरह को गौरव रखने वाली पत्रकारिता आज विवादित क्यों हो रही है इस पर पत्रकारिता से जुड़े लोगों को विशेष रूप से विचार करना होगा। इस मामले में सरकार से अपेक्षा करना व्यर्थ है क्योंकि पत्रकारिता की गरिमा गिराने के लिए वे पत्रकार ही दोषी हैं जो इसे मिशन की जगह अपनी दुकान समझ बैठे हैं। प्रगति की चेतना के साथ निचली कतार पर बैठा व्यक्ति भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखाई पड़ना चाहिए और यह तब तक संभव नहीं है जब तक पत्रकारिता के नाम पर भर गयी गंदगी को हम साफ नहीं करते। पत्रकारों की छंटनी की जाए तो वास्तविक पत्रकार मुट्ठी भर ही मिल पाएंगे लेकिन वे पत्रकारिता का चेहरा चमकाने के लिए पर्याप्त होंगे। (हिफी)

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