प्रेरणास्पद लघुकथा 

☆ गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया ☆

 

अठ्ठारह साल की दुबली – पतली लडकी कनकलता बरुआ हाथ में अपने देश की शान तिरंगा झंडा लिए जुलूस के आगे – आगे चल रही थी। उसकी उम्र तो कम थी लेकिन जोश में कमी न थी। उसके चेहरे पर प्रसन्न्ता थी साथ ही देश के लिए कुर्बानी का जज्बा भी साफ दिखाई दे रहा था। भारत माता की जय से वातावरण गूँज रहा था। भारत छोडो आंदोलन तेजी पर था। कनकलता बरुआ के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने आसाम के तेजपुर से थोडी दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराने का निश्चय किया। थाना प्रमुख जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता जुलूस में सबसे आगे थी, उसने निडरता से कहा- “आप हमारे रास्ते से हट जाइए। हम आपसे कोई विवाद नहीं करना चाहते हैं। हम थाने पर तिरंगा फहराने आए हैं और अपना काम करके लौट जाएंगे।“ थाने के प्रमुख ने उसकी एक ना सुनी और तेजी से कहा – ‘अगर कोई थोडा भी आगे बढा तो मैं सबको गोली से भून दूंगा। वापस लौट जाओ।‘

कनकलता इस धमकी से ना तो डरी और ना रुकी, वह आगे बढती रही। उसके पीछे था बडा हुजूम जिसमें स्वाधीनता के दीवाने भारत देश हमारा है ‘ के नारे लगा रहे थे। नारों से आकाश को गुंजाती हुई भीड थाने की ओर बढती ही जा रही थी। जब इन स्वतंत्रता सेनानियों ने पुलिस की बात ना सुनी तो उन्होंने जुलूस पर गोलियों बरसानी शुरू कर दीं। गोलियों की बौछार भी स्वातंत्रता के इन दीवानों को ना रोक सकी। पहली गोली कनकलता को लगी। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसने अपने हाथ में पकडे तिरंगे को झुकने नहीं दिया। उसकी शहादत ने स्वतंत्रता सेनानियों में जोश और आक्रोश भर दिया। हर कोई सबसे पहले झंडा फहराना चाहता था। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर युवक आगे बढ़ते गए, एक के बाद एक शहीद होते गए, लेकिन झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया।

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