धर्म-अध्यात्मप्रेरणास्पद लघुकथा 

हिरण्याक्ष-वध

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो धरती कांप उठी। आकाश में तारे इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़ बन गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े बन जाते हैं और अपने अत्याचारों से धरती को कंपाने के साथ-साथ प्राणियों को दुख देने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, ‘‘तुम्हारे तप पर मैं प्रसन्न हंू। वर मांगो, क्या चाहते हो?’’
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया, ‘‘प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।’’
ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उदंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा।
हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोगों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इंद्रलोक में जा पहंुचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की खबर मिली, तो वे भयभीत होकर इंद्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इंद्रलोक पर हिरण्याक्ष्ज्ञ का अधिकार स्थापित हो गया।
जब इंद्रलोक में युद्ध करने को कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरूण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा, ‘‘वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध की पिपासा को शांत कीजिए।’’
हिरण्याक्ष के कथन को सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले, ‘‘तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः तुम उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध की पिपासा को शांत करेंगे।’’
व$ण के कथन को सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पहुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वाराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला आ रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, वह वाराह कौन है? कोई भी साधारण वाराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य, यह वाराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते फिरते हैं।
हिरण्याक्ष्ज्ञ वाराह को लक्ष्य करके बोल उठा, ‘‘तुम अवश्य भगवान विष्णु ही हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हैं? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज मैं पुराने बैर का दला तुमसे चुका कर रहूंगा।’’
यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोटी की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंच मात्र क्रोध नहीं पैदा हुआ। वे वाराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे, आगे बढ़ते रहे।
हिरण्याक्ष भगवान वाराह रूप विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी निर्बल पर भगवान विष्णु केवल मुस्करा कर रहे जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकल कर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था।
भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं, तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रामण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।’’
हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं था। हिरण्याक्ष ने जब गदा से प्रहार किया तो भगवान अपने को बचा गए। उन्होंने दूसरे क्षण हरिण्याक्ष के हाथ से गदा छीन दूर फेंक दी।
हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा। भगवान शीघ्र ही सुदर्शन चक्र का आवाहन किया। चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हरिण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रगट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्द में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता था। भगवान विष्णु उसके सभी माया के कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे, काटते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष का बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कसकर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिर कर निश्चेष्ट हो गया।
भगवान विष्णु के हाथों मोर जाने के कारण हिरण्याक्षु बैकुंठ लोक में चला गयां वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।
भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, वैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णु लोक में जाता है और वैर करता है, वह भी उनके दंड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और वैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है, भगवान भेदों से परे हैं, बहुत परे हैं। (हिफी)

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