प्रेरणास्पद लघुकथा 

गाग्र्य का अभिमान

 

अनेक ऋषि-मुनियों, आत्मज्ञानी और देवस्वियों की अनेक कथाओं का वर्णन उपनोषिद में मिलता है। ऐसी ही एक कथा गाग्र्य की है। गर्ग गोत्र में जन्म लेने के कारण लोग उसे गाग्र्य कहते थे, किंतु उसका वास्तविक नाम दृप्ति बालाकि था। उसे इस बात का बहुत अभिमान था कि वह आत्म और ब्रह्म के बारे में सब कुछ जानता है।
एक दिन इसी घमंड के साथ वह काशीराज अजातशत्रु के पास वहां पहुंचा।
बालाकि बोला ‘यह जो आकाश आदित्य (सूर्य) है और उसी में जो रूप दिखाई देता है मैं तो उसी को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता हूँ।
अजातशत्रु सूर्य को ब्रह्म मानने के लिए तैयार न हुए। यह तो सत्य है कि संसार के कार्यों का संचालन लाने में आदित्य भी एक बड़ी शक्ति में आज सौर ऊर्जा से अनेक कार्य किए जाते हैं किंतु ध्यान रखने की बात यह है कि अंततः सूर्य तो आग का एक प्रचंड गोला है। उसका निर्माता और शक्तिदाता चैतन्य परमात्मा तो इसमें सर्वथा भिन्न ही है। तब हम सूर्य या सूर्य में स्थित किसी अभिमानी चेतन देवता को संसार का संचालक, पालक एवं नियामक मानकर उसकी पूजा-उपासना क्यों करें? यह तो जड़ पूजा ही है।
तब बालिका ने चंद्रमा में रहने वाले पुरुष को ब्रह्म कहा। अजातशत्रु ने कहा यह महान राजा की भांति शुक्ल वस्त्रधारी सोम है। इसका अंत क्षीण नहीं होता, पर ब्रह्म यह भी नहीं है।’
‘यह जो विद्युत में पुरुष है, इसी की मैं ब्रह्म-रूप में उपासना करता हूं? बालाकि ने कहा।
अजातशत्रु बोले, ‘नहीं! यह तेजस्वी रूप तो है पर ब्रह्म नहीं। जो कोई उसकी उपासना करता है, वह भी तेजस्वी हो जाता है और उसकी संतान भी, पर ब्रह्म इसके भी आगे है।’
तब बालाकि ने आकाश में स्थित पुरुष को ब्रह्म बताया। अजातशत्रु ने कहा, ‘नहीं, इसकी उपासना से संतान तथा पशुधन आदि की प्राप्ति होती है, पर ब्रह्म यह भी नहीं है।’
बालाकि इसी प्रकार कभी जल तो कभी वायु तो कभी पृथ्वी को ब्रह्म बताता रहा, किंतु अजातशत्रु ने उसकी एक भी बात को ठीक नहीं माना। सच बात तो यह थी कि बालाकि ब्रह्म के यथार्थ रूप को जानता ही नहीं था। वह तो संसार में परमात्मा द्वारा बनाए सूर्य, चंद्र, विद्युत, वायु, अग्नि तथा जल, इन भौतिक पदार्थों का हम अपने हित में उपयोग तो कर सकते हैं, क्योंकि इनसे हमें नाना प्रकार की भौतिक शक्तियाँ तथा भौतिक वस्तुएं प्राप्त होती हैं, किंतु वे ब्रह्म के स्थान पर हमारी पूजा के पात्र नहीं हैं।
अजातशत्रु की बातों का जब बालाकि को कोई उत्तर न सूझा तो वह मौन हो गया। उसने यह भी स्वीकार किया कि उसका ज्ञान तो बस इतना ही है, इससे अधिक इस ब्रह्म के बारे में कुछ नहीं जानता। उलटा उसने राजा आजातशत्रु से कहा, ‘यदि आप इस विषय में मुझसे अधिक कुछ जानते हैं तो कृपया आप मुझे भी बताएं। मैं आपका शिष्यत्व स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।
अजातशत्रुु ने कहा, ‘एक ब्राह्मण किसी क्षत्रिय के पास उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से आए, यह बड़ी विपरीत बात है, पर आप कहते हैं तो मैं जितना कुछ जानता हूं आपको अवश्य बता दूंगा।’’
तब आजातशुत्र ने एक बालाकि को ब्रह्म-तत्व को उपदेश दिया। अजातशत्रु ने केवल मौखिक उपदेश ही नहीं दिया, अपितु उन्होंने उसे व्यावहारिक ज्ञान भी कराया। वह बालाकि को एक सोए हुए व्यक्ति के पास लेकर गए और उसे आवाज देकर पुकारने लगे, किंतु गहरी नींद में होने के कारण वह व्यक्ति नहीं उठा।
तब अजातशत्रु ने कहा, ‘इस समय इस आदमी की आत्मा सुप्तावस्था (सुषुप्ति) में है। आत्मा विज्ञानमय कोश में चली गई है, अतः सारी इंद्रियां भी अचेत हैं, मन भी अक्रिय है, किंतु यही व्यक्ति यदि स्वप्न देखने लगे तो इसका मन सक्रिय हो जाएगा। उस समय यह अपने को राजा-महाराजा भी मान बैठेगा। वास्तव में सुषुप्ति-अवस्था में ही जीवात्मा को ब्रह्म की निकटता प्राप्त होती है। तभी तो वह जब प्रगाढ़ निद्रा से जागता है तो कहता है कि मैं सुखपूर्वक सोया। यह दिव्य सुख उसे परमात्मा की समीपता के कारण ही प्राप्त होता है। आत्मा समस्त सत्यों का सत्य है। जैसे मकड़ी तंतुओं के सहारे ऊपर को चढ़ती है, जैसे अग्नि से अनेक छोटी-बड़ी चिंगारियां निकलती हैं, उसी प्रकार इस आत्मा का फैलाव है। इसी आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लोक, समस्त देवगण, समस्त चेतन प्राणी विविध रूपों में उत्पन्न होते हैं। अतः आत्म-साक्षात्कार करो, उसी से ब्रह्म को जानोगे। ब्रह्म के दो रूप हैं, मूर्त और अमूर्त। इसे ही मत्र्य और अमत्र्य, जड़ और चेतन, असत और सत् कह सकते हैं।’’
अजातशत्रु ने जब इस प्रकार से बालाकि गाग्र्य को ब्रह्म का स्वरूप समझाया तो उसका ब्रह्म को ज्ञान लेने का मिथ्याभिमान जाता रहा और उसने राजा अजातशत्रु का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। (हिफी)

 

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