बहुमूल्य वस्तु

महाराजा कृष्णदेव राय के पड़ोसी राज्य उड़ीसा पर विजय प्राप्त करके लौटते ही पूरे विजयनगर में हर्ष की लहर दौड़ गई। महाराजा ने पूरे राज्य में विजयोत्सव मनाने का ऐलान कर दिया। दरबार में रोज ही नए-नए कलाकार आकर अपनी प्रतिभा का दर्शन करके महाराज से उपहार प्राप्त करने लगे।
महाराजा के मन में इस अवसर पर विजय-स्तंभ की स्थापना करवाने की इच्छा जागी। उन्होंने फौरन एक-एक को यह कार्य सौंप दिया।
जब विजय-स्तंभ बनकर पूरा हो गया तो महाराजा ने प्रधान शिल्पी को घर में बुलाकर पारिश्रमिक देते हुए कहा, इसके अतिरिक्त भी तुम्हारी प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर हम तुम्हें कुछ करना चाहते हैं, जो चाहो सो मांग लो।
अन्नदाता! सिर झुकाकर प्रधान शिल्पी बोला, ‘आपने मेरी कला की अधिक प्रशंसा की है। अब मांगने में शेष बचा ही क्या है। बस आपकी इच्छा बनी रहे, यही मेरी अभिलाषा है।’’
महाराजा ने जिद पकड़ ली। फिर दरबारी शिल्पी को समझाकर बोले, अरे भाई! जब महाराज अपनी खुशी में तुम्हें पुरस्कार देना चाहते हैं, तो अहंकार क्यों करते हो? जो जी में आए मांग लो, ऐसे अवसर बार-बार नहीं मिलते।’’
मगर शिल्पकार बड़ा ही स्वाभिमानी निकला। पारिश्रमिक के अतिरिक्त और कुछ भी लेना उसके स्वभाव के विपरीत था किंतु सम्राट भी जिद पर अड़े थे।
आज तेनालीराम अनुपस्थित थे, इसलिए मामले का आसानी से निपटारा नहीं हो पा रहा था।
जब शिल्पकार ने देखा कि महाराज नहीं मानेंगे तो उसने अपने औजारों का थैला खाली करके महाराजा की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘महाराज! यदि कुछ देना चाहते हैं तो मेरा यह थैला संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु से भर दें।
महाराजा ने उसकी बात सुनकर मंत्री और फिर सेनापति की ओर देखा। सेनापति ने राजपुरोहित की ओर देखा। राजपुरोहित कुरसी पर बैठे, सिर झुकाए अपने हाथ की उंगली का नाखून कुतर रहे थे।
पूरे राजदरबार पर नजरें घुमाने के बाद महाराजा ने एक लंबी सांस छोड़ी और सोचने लगे, ‘क्या दें इसे? कौन-सी चीज दुनिया में सबसे बहुमूल्य है?
अचानक उन्होंने पूछा, क्या इस थैले को हीरे जवाहरातों से भर दिया जाए?
‘हीरे-जवाहररातों से भी बहुमूल्य कोई वस्तु हो सकती है महाराज!’
अब तो महाराजा को क्रोध-सा आने लगा। मगर वे क्रोध करते कैसे? उन्होंने स्वयं ही तो शिल्पकार से जिद की थी।
अचानक महाराज को तेनालीराम की याद आई।
उन्होंने तुरंत एक सेवक को तेनालीराम को बुलाने भेजा। कुछ देर बाद ही तेनालीराम दरबार में हाजिर था। रास्ते में उसने सेवक से सारी बात मालूम कर ली थी।
तेनालीराम के आते ही महाराजा ने पूछा, ‘तेनालीराम! संसार में सबसे बहुमूल्य वस्तु कौन-सी है?
‘यह लेने वाले पर निर्भर करता है महाराज!’ तेनालीराम ने कहते हुए चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर पूछा, मगर संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु चाहिए किसे?’
मुझे!’ शिल्पकार ने अपना झोला उठाकर कहा।
‘मिल जाएगी-झोला मेरे पास लाओ।’’
शिल्पकार तेनालीराम की ओर बढ़ने लगा।
हाॅल में गहरा सन्नाटा छा गया। सब जानना और देखना चाहते थे कि संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु कया है?
तेनालीराम ने शिल्पी के हाथ से झोला लेकर उसका मुंह खोला और तीन-चार बार तेजी से ऊपर-नीचे किया, फिर उसका मुंह बांधकर शिल्पकार को देकर बोला, ‘लो, मैंने इसमें संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु भर दी है।’
शिल्पकार ने प्रसन्न होकर झोला लिया और महाराज को प्रणाम करके दरबार से चला गया।
महाराजा सहित सभी हक्के-बक्के थे कि तेनालीराम ने उसे ऐसी क्या चीज दी कि वह इस कदर खुश होकर चला गया?
उसके जाते ही महाराजा ने पूछा, ‘तुमने झोले में तो कोई वस्तु भरी ही नहीं थी, फिर शिल्पकार चला कैसे गया?’
‘कृपानिधान!’ तेनालीराम हाथ जोड़कर बोला, आपने देखा नहीं, मैंने उसके झोले में हवा भरी थी। हवा संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु है। उसके बिना संसार में कुछ संभव नहीं।’’
‘वाह!’’ महाराज ने तेनालीराम की पीठ थपथपाई और अपने गले का बहुमूल्य हार उतारकर तेनालीराम के गले में डाल दिया। (हिफी)