प्रेरणास्पद लघुकथा मानवीय संवेदना

दीमक लग गई  हमारे जीवन में तो

उस बदनाम गली से कभी मत जाना

                                                                              ☆ जख्म ☆

दोस्तों से आगे निकलने की होड़ में वह पिता की हिदायत भूल गया – उस बदनाम गली से कभी मत जाना। कंधे पर स्कूल का बैग लिए वह दौड़ रहा था और आँखों की कोरों से देख रहा था अजीब मंजर, तरह – तरह के इशारे करती लड़कियां, जवान औरतें, प्रौढा भी। होठों पर गहरी लाली, मुँह में पान – तंबाकू भरा हुआ।  चेहरे पर अजीब से हाव – भाव। अब तो आ गया था इस गली में? दोस्तों से रेस जीत गया था लेकिन आँखों की कोरों से दिखे नजारे उसे बेचैन कर रहे थे, कौन थीं वो औरतें?

दूसरे दिन वह फिर निकला उस गली से, अनजाने में नहीं। वह दौड़ रहा था पर थोडा धीरे, सामने थे फिर वही दृश्य, वही हाव – भाव। यहाँ हर दिन सब कुछ एक सा क्यों है?  पिता की सख्त नाराजगी और उस गली की औरतों के ताने सुनने के बाद भी वह रोज उस गली से गुजरने लगा। अब दौड़ता नहीं था। दौड़ना है ही नहीं, ये ट्रेन की खिडकी से दिखते चित्र थोडे ही हैं जो ट्रेन की रफ्तार के साथ तेजी से गायब होते जाते हैं। बदनाम गली का एक चित्र उभरा – माँ ने सात आठ साल के लडके को पैसे दिये – जा बाजार से कुछ खा लेना और कमरे में चली गई किसी  के साथ। किसी प्रौढा स्त्री के लिए एक समय का खाना ही काफी था कमरे में बंद होने के लिए। आँचल में बच्ची को समेटे नाबालिग लड़की को कलपते सुना – दीमक लग गई  हमारे जीवन में तो, बच्ची का क्या होगा।

जख्म गहरा था, बदनाम गली कह देने से क्या होगा? ‘तिरे जे बूडे सब अंग’। वह फिर गया उस गली में और रुक गया उस बिलखती  माँ के सामने – बहन, ठीक समझो तो दे दो अपने बच्चों को, मैं पालूंगा। फिर एक नहीं, दो नहीं ना जाने कितने बच्चे उन बदनाम गलियों से उसके पीछे चल दिए। स्नेहालय बन रहा था —-डॉ. ऋचा शर्मा

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button