अरविन्द मोहन स्वामी का ब्राह्मणत्व

पुण्यतिथि (14 मई)
अपनी जाति और धर्म पर सभी को गर्व होना चाहिए लेकिन इसका यह कदापि मतलब नहीं है कि दूसरे की जाति और धर्म को हम हेय दृष्टि से देखें। ये हमारे समाज की एक व्यवस्था हैं। आज भले ही जाति-धर्म को लेकर ढेरों विवाद खड़े कर दिये गये हैं और राजनीति ने तो इसे वीमत्स रूप दे दिया है लेकिन दुर्गा सप्तशती में भी एक मंत्र है-
‘या देवी सर्व भूतेषु जाति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्ंयै नमस्तस्यै नमस्तैस्यै नमो नमः’। इसलिए जाति को लोग सम्मान देते हैं। यह बात हमें 1996 के आसपास वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन स्वामी ने बतायी थी और कहा था कि उन्हें अपने ब्राह्मण होने पर गर्व है लेकिन वे इस तरह के ब्राह्मण नहीं है जैसे आज प्रचारित किये जाते हैं। स्वामी जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। लगभग 18 वर्ष पूर्व 14 मई 2000 को उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी स्मृति में ही इन पंक्तियों को लिखने की इच्छा हुई है।
कहते हैं ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेद वाक्य को ही ब्राह्मण वाक्य समझे। ब्राह्मणों के अनुसार ब्रह्म और ब्रह्माण्ड को जानना आवश्यक है, तभी ब्राह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। ब्रह्माण्ड अर्थात यह धरती ही नहीं इसको प्रभावित करने वाले सभी तत्वों का ज्ञान और इस ज्ञान का मतलब सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के बारे में चिंतन-मनन करना। आज ब्राह्मण शब्द के अर्थ ही बदल गये हैं। एक परिवार विशेष में जन्म लेना ही ब्राह्मण का प्रमाण बन गया जबकि वास्तविकता में ऋषि-मुनियों की परम्परा या मार्ग का नाम था ब्राह्मण। यह ऐसा ही है जैसे हम ऋषि-मुनि नाम की कोई जाति निर्मित करलें और बाद में उसकी गरिमा को ही समाप्त कर दें। अरविन्द मोहन स्वामी ने इन विषयों का गंभीर अध्ययन किया था। वह कहते थे कि यज्ञ का मतलब आग में घी डालकर मंत्र पढ़ना नहीं होता बल्कि यज्ञ का मतलब है शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सत्कर्म और वेद सम्मते कर्म। इसी लिए पांच प्रकार के यज्ञ होते हैं। पहला है ब्रह्मयज्ञ जो बताता है कि जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर हैं पितर अर्थात माता-पिता और आचार्य पितरों से बढ़कर हैं देव अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां। यही पांच शक्तियां – मिट्टी, पानी, आग, वायु और आकाश मिलकर शरीर बनाते हैं। यह ब्रह्मयज्ञ सम्पन्न होता है स्वाध्याय से।
इसी लिए अरविन्द मोहन स्वामी स्वाध्याय के लिए ज्यादा समय देते थे। मेरी उनसे मुलाकात का भी एक संयोग है। उन दिनों मैं हिन्दी दैनिक स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता कर रहा था और अखबार के मालिकान वेतन नहीं दे रहे थे। आर्थिक संकट में था इसलिए हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा के कार्यालय आया। अरविन्द मोहन स्वामी ने इस संस्था की स्थापना 24 अप्रैल 1990 को छोटे एवं मझोले अखबारों की मदद करने के लिए की थी लेकिन इसके साथ ही उनका उद्देश्य था कि रचनात्मक आलेख ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोगों तक पहुंचे और छोटे व मझोले समाचार पत्र-पत्रिकाएं यह कार्य हिफी की मदद से करने भी लगी थीं। मैंने दो आलेख दिये। उस समय घनश्याम जोशी जी स्थानीय सम्पादक हुआ करते थे। उन्होंने मेरे आलेख प्रकाशित किये। मेरे आर्थिक संकट की बात स्वामी जी तक पहुंची और उन्होंने मुझे न सिर्फ प्रोत्साहित किया बल्कि आश्वस्त भी किया कि संस्था से भरपूर सहायता मिलेगी। इसी के बाद अक्सर स्वामी जी से मिलना-जुलना और लेखन कार्य जारी रहा। स्वामी जी के बारे में जानने समझने का तभी मौका मिला। उसी समय उन्होंने कहा था कि मैं ब्राह्मण हूं और ब्राह्मण होने पर गर्व करता हूं।
मैंने पूछा – आप ऐसा क्यों सोचते हैं? मनुस्मृति में जिस ब्राह्मण वाद का वर्चस्व बताया गया है और गोस्वामी तुलसी दास ने जिस के बारे में लिखा है कि पूजिय विप्र शीलगुन हीना…… तो उन्होंने फौरन टोक दिया। कहने लगे हमारे पौराणिक ज्ञान को स्वार्थी तत्वों ने काफी बदला है। सच्चाई यह है कि समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी समाज का मस्तिष्क, सिर सा मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे। यदि कोई ब्राह्मण ऐसे कार्य नहीं करता है तो वह ब्राह्मण नहीं है सिर्फ ब्राह्मण परिवार में उसने जन्म लिया हैं। ब्राह्मण का स्वभाव दयालु होना चाहिए। उसे दूसरों की भलाई की बात सोचनी चाहिए लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि अपने घर परिवार को छोड़कर संन्यासी बन जाएं। कत्र्तव्य का पालन करना ही सबसे बड़ा धर्म है। वह कहते थे कि मेरा अपना परिवार है और उसके प्रति क्या कत्र्तव्य हैं, इनका ध्यान रखना मेरे लिए जरूरी है। बच्चे अच्छे संस्कार सीखें, उन्हें जानकारी मिले, इसलिए वर्ष में भ्रमण के कार्यक्रम बनाता हूं। बच्चे वहां की संस्कृति को देखते हैं। मैं सिर्फ देवालयों में ही नहीं जाता बल्कि ऐतिहासिक स्थलों को देखता हूं। पुस्तकें तो सभी विषयों की पढ़ता हूं अगर मुझे ही ज्ञान नहीं होगा तो दूसरों को कैसे बताऊंगा, यही तो मेरा ब्राह्मणत्व है।
मैंने यह महसूस भी किया कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। खान-पान में जातिगत भेदभाव की बातें आज भी होती हैं। स्वामी जी ब्राह्मण थे लेकिन खान-पान में उन्होंने हमेशा स्वच्छता को ही प्राथमिकता दी। उनके एक मित्र थे जो बाद में प्रदेश सरकार के मंत्री भी बने। अक्सर वे लंच के समय हिफी कार्यालय आते थे और स्वामी जी के साथ ही लंच करते। हां, मैंने देखा था कि स्वामी जी उनसे कहते चैधरी साहब, हाथ धो लीजिए, फिर लंच करें। उनकी यह उदारता अपनी संस्था के कर्मचारियों के साथ भी बनी रही। एक बार का वाक्या है कि हिफी में भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यक्रम के ढेर सारे पोस्टर छपने थे। हिफी में न्यूज एवं फीचर सेवा के साथ जाॅब वर्क भी होता था जो अब और ज्यादा विस्तृत रूप से हो रहा है। अटल जी के कार्यक्रम के वे पोस्टर लाखों की संख्या में छपने थे और इसके लिए रातभर काम हुआ। दिन की अपेक्षा रात में कार्य करने में ज्यादा परेशानी होती है और नींद भी लगती है। इसलिए स्वामी जी रात भर स्वयं जगते रहे और दो-तीन बार तो स्वयं उन्होंने चाय बनाकर कर्मचारियों को पिलायी। उन्हें इस बात का कमी ईगो नहीं रहा कि वे कम्पनी के मालिक हैं और कर्मचारियों को चाय बनाकर क्यों पिलाएं। उनके अनुसार ब्राह्मण के धर्म में यह भी शामिल है।
स्वामी जी कहते थे कि जातिगत ऊँच-नीच की भावना स्वार्थ की उपज है लेकिन अपनी जाति के प्रति स्वाभिमान का मतलब अपने कत्र्तव्यों को ईमानदारी और निष्ठा से करना है। हम ब्राह्मण कर्म से हैं, जन्म से नहीं। इस धारणा को उन्होंने हमेशा जीवित रखा। मैंने उन्हें तिलक लगाए और गेरूआ वस्त्र धारण किये कभी नहीं देखा लेकिन हिफी परिसर और अपने घर में हवन-पूजन अक्सर करवाते थे। उस समय उनकी वेशभूषा उसी के अनुकूल रहती थी। यज्ञ-हवन को वातावरण की शुद्धता से जोड़ते और धार्मिक कार्यकलापों को संस्कार से। वे कहते थे कि हम ब्राह्मण कुल में पैदा तो अपनी इच्छा से नहीं हुए हैं लेकिन ब्राह्मणों के आचरण का पालन करना तो हमारी इच्छा पर ही निर्भर है और हम इसे कर रहे है। उनकी पुण्यतिथि पर ऐसी तमाम बातें याद आ रही हैं और उनके ब्राह्मणत्व को नमन करते हुए में श्रद्धावनत हूं। (हिफी)