स्मृति विशेष

‘मैं दूसरों की किताबें क्यों पढू़ं ?

“वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे” (मैथिलीशरण गुप्त )

अनुकरणीय व्यक्तित्व वाले राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे की शिक्षा देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व अनुकरणीय था और आज भी प्रेरणा देता है। स्कूल-कालेज की शिक्षा से परे रहकर परिवार और वातावरण से उन्होंने जो सीखा उसी से साकेत जैसी कालजयी रचना हिन्दी साहित्य को दी है।
मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्र, राष्ट्रभाषा, राष्ट्र की वैविध्यपूर्ण संस्कृति, उसके प्राचीन गौरव, उसकी उद्दात चिन्तनधारा को वाणी देने वाले एक अप्रतिम कवि थे। उन्होंने न केवल भारत के जन-मन में राष्ट्रीय चेतना का जागरण कर उसे स्वाधीनता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया ,बल्कि स्वयं भी आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर बहुत कुछ झेला और जेल भी गये। एक सच्चे देशभक्त का हृदय लेकर गुप्तजी ने तत्कालीन भारत की दीन दशा का इस मार्मिक ढंग से चित्रण किया कि उससे पूरा युग-मानस झंकृत हो द्रवित हो उठा। अपने समकालीन समाज से उनका गहरा जुड़ाव था। इतना कि वे एक युग को नेतृत्व देने और उसमें जागरण मन्त्र फूंक पुनरुत्थान का पथ प्रशस्त करने में सफल हुए। गुप्तजी का काव्य जिस प्रकार महान राष्ट्र की इतिहासव्यापी जातीय जीवन का सर्वांगीण चित्रण प्रस्तुत कर सका, वैसा आधुनिक भारतीय भाषाओं में अन्यत्र दुर्लभ है।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के पास एक छोटे से गाँव चिरगांव में बाप-दादों की बड़ी सी हवेली में 3 अगस्त 1886 को हुआ था। पिता सेठ रामचरण एक संस्कारी वैष्णव थे। कविता प्रेमी रईस , जिन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा दी गयी “राय बहादुर” की उपाधि उनके शासन के विरोध में लौटा दी थी । बालक मैथिलीशरण गुप्त ने कविता और अंगे्रजी शासन के विरोध के संस्कार पिता से पाए थे और रामायण-प्रेम एवं संयम-मर्यादा का संस्कार तुलसी रामायण का नियमित पाठ करने वाली माँ काशी देवी से। तीसरे दर्जे तक गाँव के स्कूल में पढ़कर मैथिलीशरण को मेक्डोनल हाई स्कूल, झांसी में पढ़ने भेजा गया पर इस मस्तमौला बालक का मन पढाई में रमता नहीं था। मैथिलीशरण गुप्त अपनी एक बाल-मंडली बनाकर लोक-कला, लोकनाट्य, लोकसंगीत में रस लेता रहता था। तंग आकर पिता ने वापस चिरगांव बुला लिया। पूछने पर मैथिलीशरण गुप्त का उत्तर होता था ‘मैं दूसरों की किताबें क्यों पढू़ं ? मै स्वयं किताबे लिखूंगा और लोग पढ़ेंगे’ उस समय सब इस उत्तर से हैरान हुए। बाद में सचमुच यह भविष्यवाणी सच सिद्ध हुयी। वही बालक, जो बचपन में गीतों की तुकबन्दिया किया करता था। बड़ा होकर न केवल राष्ट्रकवि बल्कि सन 1952 से 1964 तक राज्यसभा में सांसद रहकर संसद की हर कार्यवाही में भाग लेने के लिए कविता में भाषण देता था और प्रश्नों के उत्तर भी कविता में दिया करता था जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
शिक्षा तो जीवन में हर पल मिलती है, सवाल है हम उसे कितना ग्रहण करते हैं। पढ़ाई केवल स्कूल-कॉलेज में ही नही होती, जीवन के खुले परिसर में भी होती है और यही पढ़ाई किसी भी व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण होती है किसी रचनाकार के लिए तो अति महत्वपूर्ण। बालक मैथिलीशरण को यह अन्तज्र्ञान कैसे हुआ था ? उसने पिता से कह दिया था कि ‘मैं स्वयं पढूंगा और कविता करूंगा’ उसने यही किया। घर में जितने धर्मग्रन्थ थे श्रीमद्भागवत, गीता, तुलसी रामायण सब पढ़ डाले। महाभारत घर में नही था तो बाहर से लाकर पढ़ लिया। संस्कृत , हिंदी ,बांगला , गुजराती भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बंगवासी , वेंकटेश्वर समाचार , भारत मित्र आदि घर में आने वाली पत्रिकाएं नियमित पढ़ीं, बाहर से मंगवाकर उस समय की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ से लेकर अन्य पत्रिकाएं भी। अपने दोस्त मुंशी अजमेरी से संगीत की बारीकियां समझी, छंद, पद कंठस्थ करने लगा।
चन्द्रकान्ता संतति, भूतनाथ आदि उपन्यास भी मैथिलीशरण जी ने पढ़ डाले। पंचतन्त्र, हितोपदेश, भतृहरि के शतक ग्रन्थ, चाणक्य निति आदि अनेक संस्कृत पोथियां भी पढ़ते चले गये। शेरो-शायरी में रूचि मुंशी अजमेरी ने जगाई तो लोक संगीत की आल्हा गायकों ने। साधु संतांे की संगत भी की। इस तरह उन्होंने जहां से जो मिला, पढ़ा। विद्वानों से सुना। आचार्य महावीर प्रसाद जैसे गुरु से प्रारम्भिक छन्दों में सुधार करवाया, सीखा और स्वाध्याय की जमीन पुख्ता करके की काव्य-रचना में उतरे, उसे उतरोत्तर विकसित भी करते गये। परिणाम था 26 वर्ष की उम्र में “भारत भारती” जैसी प्रभावी कृति का सृजन किया।
संस्कार, सुसंगति और स्वाध्याय ने उन्हें अच्छी रचना के लिए प्रेरित ही नही किया ,अच्छा व्यक्ति बनने की ओर भी अग्रसर किया। एक सुसंगठित व्यक्तित्व जिसे “अजातशत्रु” भी कहा जा सकता है । किसी संघर्ष, किसी संकट के समय जिसे किसी से कोई गिला नहीं, जिसका कोई शत्रु न हो। हर स्थिति में अविचलित, उदात्त। 18 वर्ष की आयु में एक एक करके पिता, माता और पत्नी की मृत्यु। कोमल कवि-मन को धक्के पर धक्के। फिर पुरखों का जमा-जमाया व्यापार भारी घाटे के कारण ठप्प और भारी कर्ज का बड़ा धक्का। पुस्तकों की रॉयल्टी के नाम पर कुछ नहीं या नाम मात्र की आय। ऐसी स्थिति में भी धीरज नहीं खोया , स्वभावगत उदारता नही छोड़ी। श्रम करके अपनी पुस्तकें आप छापी, बेची और निरंतर लेखन एवं उसकी लोकप्रियता के सम्बल से आगे बढ़ते गये। प्रेरक व्यक्तित्व ही प्रेरक रचनाये देकर लाखो लाख पाठको के हृदय सम्राट बन सकते है। राज्यसभा के सदस्य के रूप में जब तक दिल्ली रहे, उनके घर पर दरबार लगा रहता था जिसमे राजधानी के साहित्य-प्रेमी नेताओं से लेकर सभी साहित्यकार पहुंचते रहते थे। अब तो कवियों के बीच वैसी पारिवारिकता समाप्तप्राय होती जा रही है। सन 1964 में राज्यसभा में उनका दूसरा कार्यकाल समाप्त था। इस बीच 1955 एवं 1959 में उन्होंने दो बार बीमारी के बड़े झटके झेले। सन 1954 में उन्हें भारत सरकार ने पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया था। सन 1960 में उनके अमृत वर्ष में तत्कालीन राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। सन 1962 में वे सरस्वती पत्रिका की स्वर्ण जयंती पर इलाहाबाद गये। 29 मार्च 1963 को अपने छोटे भाई सियारामशरण गुप्त के निधन का झटका झेला और 7 दिसम्बर 1964 को चिरगांव से लौटकर 12 दिसम्बर 1964 को इस संसार को छोड़ गये।
अपनी हिम्मत से, अपनी ताकत से और अपने ही संघर्ष के बल पर जीवन में यश सफलता अर्जित करने वाले वे एक सर्वप्रिय कवि थे। फिर भी उनकी सरलता एवं विनम्रता बेजोड़ थी। “वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे” बहुत कम कवि-साहित्यकार इस स्तर तक पहुंचते है जिनकी व्यक्तिगत प्रेरणा और कविता सम्मान के रूप में जन जन तक जाकर अपनी रोशनी बिखेरती हो। उन्हें राम पर विश्वास है तभी तो साकेत में कहते हैं-
राम तुम मानव नहीं हो क्या
सबसे रमे हुए मुझमें नहीं हो क्या
तब मैं निरीश्वर हूं, ईश्वर क्षमा करे
तुम न रमो मुझमे मन तुम में रमा करे। (हिफी)

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