लेखक की कलम

वैचारिक आधार पर आगे बढ़ी भाजपा

भारतीय जनसंघ की स्थापना

(डॉ. दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भारतीय जनसंघ की स्थापना के समय देश में कांग्रेस का वर्चस्व था। केंद्र से लेकर प्रांतों तक उसी की सरकारें हुआ करती थी। उस दौर में कांग्रेस को चुनौती देना आसान नहीं था। उसके विकल्प बनने की तो कल्पना भी मुश्किल थी। विपक्ष का मतलब सरकार के विरोध तक सीमित था। सरकार बनाने की दावेदारी उसके एजेंडे में ही नहीं थी। ऐसे राजनीतिक माहौल में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई थी। इसकी स्थापना राष्ट्रवादी विचार धारा के आधार पर हुई थी। यह माना गया कि सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना ही जनसंघ के उद्देश्य है। विरोध भी विचारधारा पर आधारित रहा। इस विचारधारा पर विश्वास रखने वाले ही जनसंघ में शामिल होते थे। सत्ता में पहुंचने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। जनसंघ में रह कर केवल संघर्ष ही करना था। इसलिए अवसरवादी लोगों को जनसंघ के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। गैर कांग्रेस वाद के दौर में जनसंघ को कतिपय प्रान्तों की सत्ता में भागीदारी का अवसर मिला किंतु सत्ता में बने रहने के लिए उसने अपने सिद्धांतों व विचार धारा से कभीं समझौता नहीं किया। आपात काल की समाप्ति के बाद चुनाव में जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ था। चुनाव में इसको सफलता मिली। इस घटक की ओर से अटल बिहारी वाजपेयी लाल कृष्ण आडवाणी सिकन्दर बख्त आदि मोरार जी देसाई सरकार में मंत्री बने थे। इन्होंने न्यूमतम साझा कार्यकम पर अमल किया किंतु अपने मूल सिद्धांत व विचार का परित्याग भी नहीं किया। क्योंकि राष्ट्र का वास्तविक कल्याण इसी विचार पर चल कर हो सकता है। इस विचार में वोट बैंक की राजनीति और छद्म धर्म निरपेक्षता नहीं थी।
करीब आधे कार्यकाल के बाद जनता पार्टी सरकार आंतरिक विरोधों के चलते गिर गई थी। इसके बाद जनसंघ घटक के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया था। यह पार्टी व्यक्ति या परिवार पर आधारित नहीं थी। बल्कि इसका आधार राष्ट्रवाद था। इसी विचार पर वह अनवरत अमल करती रही। धीरे-धीरे इस विचार धारा के प्रति जनता का विश्वास बढ़ता रहा। इसके चलते भाजपा सत्ता की दौड़ में शामिल हुई। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। यह सरकार करीब दो दर्जन दलों के समर्थन पर आधारित थी। इसके बाद नरेंद्र मोदी का दौर आया। भाजपा ने लोक सभा में तीन सौ व राज्यसभा में सौ का आंकड़ा पार कर लिया। उत्तर प्रदेश में छत्तीस वर्षों बाद भाजपा ने सत्ता में वापसी का इतिहास बनाया। इस अवधि में भाजपा वास्तविक रूप में राष्ट्रीय पार्टी बनी। कर्नाटक, असम, त्रिपुरा, मेघालय आदि तक उसकी सत्ता का विस्तार हुआ है। पश्चिम बंगाल में वह मुख्य विपक्षी पार्टी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश ही नहीं दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता है। वस्तुतः भाजपा की यह विजय यात्रा विचारधारा पर आधारित है। इस विचारधारा में राष्ट्र को सर्वोच्च माना गया। इससे राजनीतिक चिंतन का पूरा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तब परिवार के हित पीछे रह जाते हैं। आज नरेंद्र मोदी और अदित्यनाथ परिवार वादी दलों पर हमला बोल रहे है। उनके कथन राष्ट्रवादी विचार से ही प्रेरित हैं। इसके साथ ही भाजपा की विचारधारा में एकात्म मानववाद व अंत्योदय की अवधारणा है। यह सुशासन का आधार है। इसके अनुरुप शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की गई।
दुनिया में एक तरफ पश्चिम का उपभोगवाद था,दूसरी तरफ कम्युनिस्ट विचार था। इनके बीच समाजवाद का विचार भी था। सोशलिस्ट पार्टियां भी सक्रिय थीं लेकिन समय के साथ यह सभी विफल रही है। समाज वाद के नाम पर तो परिवारवाद आ गया। पाश्चात्य चिंतन उपभोगवाद पर आधारित है। इसके केंद्र में व्यक्ति था। इस सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को अपनी सुख-सुविधाओं के लिये संलग्न रहने व प्रयास करते रहने का अधिकार है। इस विचार के अनुरूप ही प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब व बेरहमी से दोहन किया गया जिसके परिणामस्वरूप भौतिक विकास तो हुआ, लेकिन प्रकृति खतरनाक स्तर पर जा रही है। उपभोगवाद ने उनके समाज को भी अराजकता की स्थिति में पहुंचा दिया है। समाज बिखर रहा है,परिवार टूट रहे हैं, वृद्धावस्था आश्रम बन रहे हैं। कम्युनिस्टों ने भारत को भी विदेशी चश्मे से देखा। इसलिये उन्हें अपने देश में कोई अच्छाई नजर नहीं आती। इन्होंने आत्मगौरवविहीन समाज बनाने का प्रयास किया। यह स्थापित किया कि जो कुछ अच्छा है वह विदेशों से मिला है। हमारा कुछ नहीं, यह विचार उन्होंने प्रसारित किया। केवल सरकार के भरोसे सुधार का विचार भी विफल रहा। सोशलिस्ट विचार भी अब केवल किताबों में बचा है। व्यवहार में कहीं नजर नहीं आता।
भाजपा ने राष्ट्रभाव को महत्व दिया। एकात्म मानव दर्शन हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि,आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है। इसमें समरसता का विचार है, कोई भेदभाव नहीं है।परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है। समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। धर्म अर्थ काम,मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो,लेकिन धन का शुभ होना अनिवार्य है। एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता सदैव रहेगी, क्योंकि यह शाश्वत विचारों पर आधारित है।
भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार नहीं हो सकता। अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है। इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिए बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है, लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये। भोजन का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है। बच्चे,बूढ़े,रोगी, अपाहिज सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं कर पाता। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम स्तर है। समाज के सबसे निचले पायदान पर जो व्यक्ति है, उसके उत्थान का प्रयास प्राथमिकता से होना चाहिये। यह अंत्योदय है। भाजपा इसी विचार से प्रेरित सुशासन पर अमल कर रही है। (हिफी)

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