
(डॉ. दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
- प्रियंका भी राहुल की राह पर चलीं
- मोदी का विरोध कांग्रेस पर पड़ा भारी
कांग्रेस में अपने ही नेतृत्व को लेकर निराशा है। पहले राहुल गांधी ने पार्टी की कमान संभाली थी। उन्हें भरपूर अवसर भी मिला। इसमें यूपीए के समय सत्ता और उसके बाद विपक्ष में रहने का अनुभव भी शामिल था लेकिन दोनों ही भूमिकाओं में वह किसी प्रकार का करिश्मा नहीं दिखा सके। उनके बयानों में पद व प्रतिष्ठा के अनुरूप गरिमा गंभीरता का नितांत अभाव रहा है। फिर ऐसा समय आया जब राहुल की जगह प्रियंका गांधी को लाने की मांग उठने लगी। उस समय तक प्रियंका रायबरेली में अपनी मां सोनिया गांधी के चुनाव में ही सक्रिय रहते है। राहुल गांधी से निराश हो चुके कांग्रेस के लोग ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर दायित्व देने की मांग कर रहे थे। कहा गया कि प्रियंका गांधी में अपनी दादी इंदिरा गांधी की झलक है। वह सक्रिय हुई तो कांग्रेस का पुराना दौर लौट आएगा। कार्यकर्ता प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ की नारेबाजी तक करने लगे। उनकी यह मुराद पूरी भी हुई। प्रियंका को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। उन्होंने अपनी सक्रियता खूब बढा दी। प्रियंका लाओ की मांग पूरी हुई। लेकिन कांग्रेस बचाओ का लक्ष्य अधर में रह गया। इसका बड़ा कारण यह था कि प्रियंका पार्टी में बड़ा बदलाव करने में विफल रही। वह उसी राह पर चलती रही,जिस पर राहुल अमल कर रहे थे। बयानों का स्तर भी एक जैसा था। यह माना गया कि नरेंद्र मोदी पर अमर्यादित बयान कांग्रेस का ग्राफ बढा देंगे। इसके बाद जहां भी भाजपा या मोदी के विरोध का धुआं उठता दिखाई दिया, कांग्रेस का नेतृत्व उस ओर दौड़ने लगा।
जेएनयू, सीएएए हाथरस, किसान आंदोलन सभी में कांग्रेस पिछलग्गू बन कर पहुंचने लगी। जो राहुल करते थे,वही प्रियंका भी करने लगी। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की एक जैसी राजनीति। एक जैसे बयान। सब कुछ यथावत। कांग्रेस में एक प्रकार की जड़ता स्थायी रूप में आ गई। कॉंग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को दस वर्ष सत्ता पर नियंत्रण रखने का अवसर मिला। तत्कालीन प्रधानमंत्री उनके ही इशारों पर चलते थे। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। इसके चलते ही वह दस वर्ष तक कुर्सी पर काबिज रहे। विगत सात वर्षों से कॉंग्रेस इसी हाईकमान के नेतृत्व में विपक्षी भूमिका का निर्वाह कर रही है। लेकिन सत्ता और विपक्ष दोनों की भूमिका में उसका रिपोर्ट कार्ड निराशाजनक है। यही कारण है सत्ता के दस वर्षों की उपलब्धि पर कॉंग्रेस के लोग ही चर्चा नहीं करते। भविष्य के लिए गरीबों किसानों युवाओं को सब्जबाग अवश्य दिखाए जाते है।
प्रजातन्त्र में विपक्ष की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। संविधान के अनुरूप होने वाले उसके आंदोलन व सत्याग्रह सरकार पर नियंत्रण का काम कर सकते है। यह ना भी हो,तब भी जनता के बीच एक माहौल का निर्मांण अवश्य होता है। लेकिन वर्तमान कॉंग्रेस ऐसा कुछ भी नहीं कर सकी। उसकी सक्रियता चुनाव सभाओं के अलावा ट्विटर पर ही दिखाई दी है। इसके नेता दूसरे संगठनों के नकारात्मक आंदोलनों को समर्थन देने पहुंच जाते है। जल्दी ही ऐसे आंदोलनों की असलियत सामने आ जाती है। इन सबके पीछे आंदोलनजीवी ही पाए जाते है। वही ऐसे अराजक आंदोलन के सूत्रधार होते है। इनका समर्थन करने वालों को भी अंततः फजीहत उठानी पड़ती है। लेकिन कई बार की ऐसी दुर्गति के बाद कॉंग्रेस सबक लेने को तैयार नहीं है। यह वर्तमान कॉंग्रेस में जड़ता का ही प्रमाण है।
लगातार पराजय के बाद कॉंग्रेस में सुधार की संभावना नहीं दे रही है। अंतरिम राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्ण कालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के वही एपिसोड। परिवार के अलावा किसी अन्य पर विचार संभव नहीं है। बिल्कुल क्षेत्रीय पार्टियों जैसी दशा है। राहुल गांधी से कांग्रेस कार्यकर्ता पहले ही निराश हो चुके थे। उनके चुनाव प्रचार से प्रत्याशित उत्साहित नहीं होते थे। क्योंकि राहुल के चुनाव प्रचार के बाद उनकी जीत की संभावना कम हो जाती थी। कार्यकर्ताओं की मांग को देखते हुए प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय किया गया। उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण स्थान मिला लेकिन इससे कॉंग्रेस का ग्राफ बढ़ने की जगह घट गया। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव इसके प्रमाण है। लोकसभा चुनाव में भी उसे पहले के मुकाबले कम सीट मिली। पश्चिम बंगाल में पार्टी का सफाया हो गया। केरल में सरकार बनाने का दावा भी इस बार साकार नहीं हुआ। मतलब साफ है। प्रियंका गांधी कॉंग्रेस के लिए आखरी किरण थीं। लेकिन इससे भी कॉंग्रेस में उजाला नहीं हुआ। क्योंकि प्रियंका भी राहुल के रास्ते पर ही चल रही है। इससे कॉंग्रेस में बदलाव व सुधार की जो आशा थी। वह समाप्त हो गई। इन भाई बहनों के बयान समान रहते है। भाव व भाषा का स्तर एक जैसा है। चीन सीमा पर तनाव और कोरोना आपदा राष्ट्रीय संकट की तरह रही है। लेकिन ऐसे मौके पर भी इनके द्वारा राष्ट्रीय सहमति दिखाने का प्रयास नहीं किया गया। चीन सीमा पर संकट के समय कॉंग्रेस के नेता भारत सरकार पर ही हमला बोल रहे थे। इनके निशाने पर चीन नहीं था। इनके बयान केवल अपनी सरकार के विरोध में नहीं थे, बल्कि ये भारतीय सैनिकों का मनोबल गिराने वाले थे। अच्छाई यह है कि इनके बयानों को देश में गंभीरता से नहीं लिया जाता। राहुल और प्रियंका की शैली भी एक जैसी है। मोदी डर गए, छुप गए, कायर है, डरपोक है। इनके द्वारा यह शब्द भारत के प्रधानमंत्री के लिए प्रयुक्त होते है। इसके पहले अनुच्छेद 370 के समर्थन में कॉंग्रेस और पाकिस्तान के बयानों में गजब की समानता थी। जो कसर रह गई थी, वह दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी। उन्होंने कहा कि कॉंग्रेस सत्ता में आई तो इस अनुच्छेद को बहाल किया जाएगा। उनके बयान से पाकिस्तान व अलगाववादी अवश्य खुश हुए होंगे।
कॉंग्रेस हाईकमान का इस पर मौन भी अपने में बहुत कुछ कहने वाला है। मतलब साफ है। कॉंग्रेस यथास्थिति से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। देश अनुच्छेद 370 को छोड़ कर आगे बढ़ गया। कॉंग्रेस जड़ता में घिरी है। इसी प्रकार कोरोना संकट के समय भी कॉंग्रेस की नीति राष्ट्रीय हित के अनुरूप नहीं थी। उसके बयान जनता में भय का संचार करने वाले थे। दुनिया के विकसित देशों में कोरोना से बहुत नुकसान हुआ। कॉंग्रेस ने देश की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल बयान देने में संकोच नहीं किया। राहुल गांधी ने देश में कोरोना वायरस के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार बताया था। कहा कि मोदी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्होंने जो नौटंकी की, उस कारण ये हालात पैदा हुए। राहुल ने फिर लोगों को डराने का बयान दिया। कहा कि मौजूदा गति से टीकाकरण हुआ तो आगे तीसरी, चैथी और पांचवीं लहर भी आएगी। इस प्रकार की राजनीति से ना कॉंग्रेस का हित हुआ, ना जनता के बीच उसकी विश्वसनीयता बढ़ रही है। कॉंग्रेस में निराशा अवश्य बढ़ रही है। जिन युवा नेताओं की अच्छी छवि रही है, वह कॉंग्रेस छोड़ रहे है। कांग्रेस ने हाथरस घटना को खूब तूल दिया था। उनका उद्देश्य योगी आदित्यनाथ सरकार को बदनाम करना था।
राजनीतिक लाभ के लिए विरोधी हाथरस पहुंच रहे थे। राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा यहां पहुंचने के लिए बेकरार थे। लेकिन राजस्थान में होनी वाली घटना पर मौन थे। इन्होंने वहां पहुंचने की जहमत नहीं उठाई। यह दोहरा आचरण था। अब लोग जागरूक है। वह नेताओं की प्रत्येक गतिविधि का आकलन करते है। इसके चलते ही कांग्रेस को पांच राज्यों में हुए चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा है। चार राज्यों में दोबारा सत्ता में लौटने का मंसूबा नाकाम रहा। पंजाब में भारी पराजय का सामना करना पड़ा। पहले किसान आंदोलन और बाद में नवजोत सिद्धू व चन्नी के चक्कर में कांग्रेस कहीं की ना रही। इन सबके पीछे कांग्रेस नेतृत्व की अदूरदर्शिता भी उजागर हुई है। (हिफी)