
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
गोस्वामी तुलसीदास ने संत और असंत के बीच भेद का उदाहरण चंदन और उसको काटने वाली कुल्हाड़ी के रूप में बताया है। कुल्हाड़ी चंदन को काटती है, फिर भी चंदन उसे सुगंध देता है। यही उदाहरण यहां कागभुशुंडि जी के गुरु ने भी दिया। कागभुशुंुडि ने अपने पूर्व जन्म में गुरु का अपमान किया लेकिन विप्र गुरु ने कोई ध्यान नहीं दिया। शंकर जी उस अपमान को सहन नहीं कर सके और बहुत कठोर श्राप दे दिया। इतना कठोर श्राप सुनकर गुरु के मन में तब भी अपने शिष्य के प्रति स्नेह बना रहा और वे श्राप से मुक्त करने के लिए शिवजी की प्रार्थना करने लगे। इस प्रार्थना को रुद्राष्टक कहा गया है।
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप।
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
विनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोर।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को अपने पूर्व जन्म की कथा सुना रहे हैं। वे कहते हैं कि मंदिर में जब मैंने अभिमान के वश होकर अपने गुरु को प्रणाम नहीं किया तब शंकर जी बहुत कुपित हुए और मुझे अधम गति का अजगर बनने और एक हजार जन्मों तक दुःख पाने का श्राप दिया तो दयालु गुरु हाहाकार करने लगे। मेरा भी शरीर कांप रहा था। यह देखकर मेरे गुरु के हृदय में बहुत संताप पैदा हुआ। प्रेम सहित दण्डवत करके वे ब्राह्मण श्री शिव जी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-
नमामीश मीशान निर्वाण रूपं, बिभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागार संसार पारं नतोऽहं।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरं।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कंठेभुजंगा।
चलत्कुंडलं भ्रूसुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।
हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म और वेद स्वरूप ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी। मैं आपको नमस्कार करता हूं। निजस्वरूप में स्थित अर्थात् माया आदि से रहित, मायिक गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाश रूप और आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर अथवा आकाश के मूल अच्छादित करने वाले आपका मैं भजन करता हूं। निराकार, ओंकार को भूल, तुरीय अर्थात् तीनों गुणों से अतीत, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर का मैं नमस्कार करता हूं। जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर है जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है, जिनके कानों में कुंडल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटी और बिशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नील कण्ठ और दयाल हैं। सिंह चर्म का वस्त्र धारण किये हैं और मुण्डमाला पहने हैं। उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूं।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखंडं अजं भानुकोटि प्रकाशं।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानी पतिं भावगम्यं।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनानंद दाता पुरारी।
चिंदानंद संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथरी।
न यावद उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परेवानराणां।
न तावत्सुखं शांति संतापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूतादिवासं।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदाशंभु तुभ्यं।
जरा जन्म दुःखौधतातप्यमानं, प्रभोपाहिआपन्नमामीश शंभो।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।
प्रचण्ड स्वरूप, श्रेष्ठ तपस्वी, परमेश्वर, अखंड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (कष्टों) को निर्मूल करने वाले हाथ में त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूं। कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले त्रिपुरासुर के शत्रु, सच्चिदानंद धन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले, कामदेव के शत्रु, हे प्रभो-प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए क्योंकि हे पार्वती जी के पति, जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों की वंदना नहीं करते तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतएव हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय) में निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न हो जाइए। हे प्रभो, मैं न तो योग जानता हूं न जप और पूजा ही। हे शम्भो, मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूं। हे प्रभो बुढ़ापा तथा जन्म-मृत्यु के दुख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दुखों से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर, हे शम्भो मैं आपको नमस्कार करता हूं।
भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं उन पर भगवान शंभु प्रसन्न होते हैं।
सुनि विनती सर्वग्य सिव देखि विप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजवर बरमागु।
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर वर देहु।
तव मायावस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअं प्रभु कृपासिंधु भगवान।
सर्वज्ञ शिव जी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा, तब मंदिर में फिर से आकाशवाणी हुई कि हे द्विज श्रेष्ठ तुम वरदान मांगो। ब्राह्मण ने कहा कि हे प्रभो यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे नाथ यदि इस दीन पर आपका नेह है तो पहले
अपने चरणों की भक्ति देकर
फिर दूसरा वर दीजिए। हे प्रभो, यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश में होकर निरंतर भूला फिरता है। हे कृपा के समुद्र भगवान, उस पर क्रोध न कीजिए। -क्रमशः (हिफी)