लेखक की कलम

हरि अनंत हरि कथा अनंता

केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

विभीषण को पूरी तरह से संतुष्ट करके प्रभु श्रीराम उन्हें अपना सचिव सलाहकार बना लेते हैं। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि यह अगाध समुद्र कैसे पार किया जाए? विभीषण जी उन्हें उपाय बताते हैं। इसी बीच वानर सेना दो राक्षसों को पकड़ कर लाती है जो रावण के गुप्तचर थे। रावण ने उन्हें विभीषण के पीछे-पीछे भेजा था और वे रूप बदलकर आए थे। वानर-भालू उन गुप्तचरों को पीटते हैं तब दयावान लक्ष्मण उन्हें छुड़ाकर रावण को चिट्ठी भेजते हैं। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम के स्वभाव को देखकर वानर खुश हो रहे हैं-
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना, ते नर पसु बिनु पूंछ विषाना।
निज जन जानि ताहि अपनावा, प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।
पुनि सर्वग्य सर्व उर बासी,
सर्व रूप सब रहित उदासी।
बोले बचन नीति प्रति पालक, कारन मनुज दनुज कुल घालक।
सुनु कपीस लंकापति बीरा, केहि विधि तरिअ जलधि गंभीरा।
संकुल मकर उरग झस जाती, अति अगाध दुस्तर सब भांती।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक, कोटि सिन्धु सोषक तव सायक।
जद्यपि तदपि नीति अस गाई, विनय करि सागर सन जाई।
प्रभु तुम्हार कुल गुर जलधि कहिहि उपाय विचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरों का भजन करते हैं, वे बिना सींग और पूंछ के पशु हैं। प्रभु ने विभीषण को भी अपना सेवक समझकर अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानर कुल (समूह) को मन भा गया। इसके बाद सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्व रूप अर्थात सभी रूपों में प्रकट होने वाले, सबसे रहित उदासीन, भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्रीराम जी नीति की रक्षा करने वाले बचन बोले। उन्होंने कहा कि हे वानर राज सुग्रीव और लंकापति विभीषण सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, सांप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यन्त अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है। विभीषण जी ने कहा- हे रघुनाथ जी सुनिए, यद्यपि आपका एक वाण ही करोड़ों समुद्रों को सुखा सकता है तथापि नीति ऐसी कही गयी है कि पहले चलकर समुद्र से प्रार्थना की जाए, उन्होंने कहा- हे प्रभु, समुद्र आपके कुल में बड़े-पूर्वज हैं। वे विचार कर उपाय बतला देंगे, तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी।
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई, करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा, राम बचन सुनि अति दुख पावा।
नाथ दैवकर कवन भरोसा, सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।
कादर मन कहुं एक अधारा, दैव दैव आलसी पुकारा।
सुनत बिहसि बोले रघुवीरा, ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई, सिंधु समीप गए रघुराई।
प्रथम प्रनाम कीन्हि सिरु नाई, बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।
जबहिं विभीषन प्रभु पहिं आए, पाछें रावन दूत पठाए।
सकल चरित तिन्ह देखे, धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयं सराहहिं सरनागत पर नेह।
विभीषण जी ने समुद्र से प्रार्थना करने की जब सलाह दी तो श्रीराम जी ने कहा कि हे सखा तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए और शायद दैव (भाग्य) सहायक हो। यह सलाह लक्ष्मण जी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्रीराम जी के बचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुख पाया। लक्ष्मण जी ने कहा कि हे नाथ दैव का कौन भरोसा, मन में क्रोध कीजिए और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर को तसल्ली देने का उपाय है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं अर्थात भाग्य का सहारा लेते हैं। यह सुनकर श्री रघुनाथ जी हंसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को धीरज दिया, समझाया और प्रभु श्रीराम समुद्र के तट पर पहुंचे। उन्होंने पहले समुद्र को सिर नवाकर प्रणाम किया, फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गये।
इधर, जब विभीषण रावण की सभा छोड़कर श्रीराम की शरण में चले थे, तभी रावण ने उनके पीछे दो दूत भेजे थे। कपट से वानर शरीर धारण कर वे दूत सब लीलाएं देख रहे थे। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना कर रहे थे। ऐसा करते समय उन्हें अपना कपट वेश भूल गया और राक्षस रूप में भी प्रभु श्रीराम का गुणगान करने लगे, तब वानरों ने समझा कि ये तो शत्रु रावण के दूत हैं। वानर उन सभी को बांधकर सुग्रीव के पास ले गये-
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ, अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने, सकल बांधि कपीस पहिं आने।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर,
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए,
बांधि कटक चहुं पास फिराए।
बहु प्रकार मारन कपि लागे, दीन पुकारत तदपि न त्यागे।
जो हमार हर नासा काना, तेहि कोसलाधीस कै आना।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए, दया लागि हंसि तुरत छोड़ाए।
रावन कर दीजहु यह पाती, लछमन बचन बाचु कुलघाती।
कहेउ मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु नत आवा कालु तुम्हार।
रावण के उन दूतों को जब सुग्रीव के पास लाया गया तो सुग्रीव ने कहा सब वानरों सुनो, राक्षसों के अंग भंग करके भेज दो। सुग्रीव के बचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बांधकर उन्हांेने सेना के चारों तरफ घुमाया। वानर उन्हें बहुत प्रकार से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। दूतों ने पुकार कर कहा कि, जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे
कोशलाधीस श्रीराम जी की सौगंध है। यह सुनकर लक्ष्मण जी ने उनको अपने पास बुलाया। उन्हें दया लगी और हंसकर उन्हांेने तुरत ही दूतों को छोड़ देने के लिए कहा। लक्ष्मण ने कहा रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना और कहना- हे कुलघाती, लक्ष्मण के संदेश को बांचों अर्थात् पढो। फिर उस मूर्ख से जुबानी मेरा यह उदार (कृपा से भरा) संदेश कहना कि सीता जी को देककर श्रीाम से मिलो, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु आ गयी है, यह समझ लो।
तुरत नाइ लछिमन पद माथा, चले दूत बरनत गुन गाथा।
कहत रामुजस लंका आए, रावन चरन सीस तिन्ह नाए।
बिहसि दसानन पूछी बाता, कहसि न सुक आपनि कुसलाता।
पुनि कहु खबरि विभीषन केरी, जाहि मृत्यु आई अति नेरी।
करत राज लंका सठ त्यागी, होइहि जबकर कीट अभागी।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई, कठिन काल प्रेरित चलि आई।
लक्ष्मण जी की चिट्ठी लेकर और उन्हंे प्रणाम करके रावण के दूत, श्रीराम जी के गुणों की कथा करते हुए तुरन्त ही चल दिये। श्रीराम जी का यश कहते हुए वे लंका पहुंचे और रावण के चरणों में सिर नवाया। दशमुख रावण ने हंसकर समसचार पूछा- अरे शुक (दूत का नाम) अपनी कुशल क्यों नहीं कहता, फिर उस विभीषण का समाचार सुना, जिसके अत्यंत निकट मृत्यु आ गयी है। मूर्ख (विभीषण) ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया है। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा। गेहूं के साथ घुन के पिसने की कहावत कही गयी है। रावण का संकेत यही था। उसने कहा इसके बाद वानर और भालुओं का समाचार बता जो कठिन काल की प्रेरणा से यहां चले आए हैं।-क्रमशः (हिफी)

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