कितनों को ही याद आयी होगी माँ
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 28 वर्षों के बाद अपने पैतृक गांव यमकेश्वर में

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कुछ क्षण भावुक होते हैं। बहुत ही भावुक होते हैं। वहां सब कुछ यथार्थ होता है, कुछ भी बनावटी नहीं दिखता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 28 वर्षों के बाद अपने पैतृक गांव यमकेश्वर के पंचूर पहुंचे थे। तीन मई से पांच मई तक उत्तराखण्ड प्रवास एक संन्यासी के लिए बहुत विशेष अवसर था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी माता सावित्री देवी के पैर छुए और माता ने अपने यशस्वी पुत्र के सिर पर हाथ रखा। यह देखकर कितने ही लोगों को अपनी माँ की याद आ गयी होगी जो आज या तो इस दुनिया मंे नहीं है अथवा कई वर्षों से उनकी अपनी माँ से भेंट नहीं हो सकी है। माता सावित्री के समान सभी माताएं अपने बेटे-बेटियों को चिरंजीवी भव, यशस्वी भव का आशीर्वाद देती रहती हैं। उनकी आशीष कितनी फलीभूत हो पाती है, यह अलग बात है लेकिन माँ का आशीर्वाद निस्वार्थ होता है। अर्से बाद पुत्र या पुत्री घर आते हैं तो माँ की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। यमकेश्वर के पंचूर मंे सावित्री देवी ने आज से लगभग 28 वर्ष पहले अपने युवा बेटे को जब गेरुए वस्त्र धारण कर संन्यासी बनते देखा होगा, तब भी रोते-रोते उसने आशीर्वाद ही दिया होगा। वही आशीर्वाद फलीभूत हुआ। बेटा अजय विष्ट संन्यासी आदित्यनाथ बना, फिर सांसद बना और अब उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री है। माता सावित्री देवी जानती थीं कि बेटे से मुलाकात कुछ ही घंटों की है। इस अवधि में वे अपना सम्पूर्ण स्नेह उड़ेल देना चाहती थीं। 28 वर्षों बाद उनके चेहरे पर जो हंसी दिखी, उसका वर्णन शब्दों मंे नहीं किया जा सकता। संन्यासी बेटे ने भी यह अनुभव किया होगा और हम सभी करते रहते हैं। योगी की आंखें भी छलक आयी थीं।
ऐसा ही दृश्य गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस मंे प्रस्तुत किया है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए चैदह वर्ष तक वनवास मंे रहे। इस बीच कई घटनाएं घटीं। भरत जी उन्हें चित्रकूट से वापस लाने के लिए अयोध्यावासियों के साथ गये थे लेकिन राम जी तो मर्यादा का पालन करने वाले थे। वे 14 वर्ष का वनवास पूरा करके ही लौटे। वनवास से लौटने के दिन
अयोध्या मंे सभी बेचैन थे। भारत जी तो कह रहे थे कि मैं आत्महत्या कर लूंगा, यदि भइया राम निर्धारित दिन नहीं आये। उधर, माता कौशल्या और सुमित्रा की आतुरता को गोस्वामी तुलसीदास ने दिखाया है कि जैसे वन मंे चरने गयी हुई गाएं शाम को जब अपने बछड़े से मिलने के लिए रंभाती हुई लौटती हैं, उसी प्रकार माता कौशल्या और सुमित्रा भी बेटे से मिलने के लिए दौड़ पड़ीं। माँ का स्नेह शब्दों में व्यक्त ही नहीं हो सकता….।
दूसरों की नहीं कहते, लेकिन मैं अपनी माँ के बारे मंे जरूर यही कह सकता हूं। आज 26 वर्ष हो गये, जब मेरी माँ इस दुनिया को छोड़कर चली गयी थीं। हाईस्कूल-इण्टर की जब तक पढ़ाई जनपद मुख्यालय मंे की, तब तक महीने मंे एक बार गांव चला जाता था। इसके बाद लखनऊ आ गया तो माँ से मिलने का समय बढ़ता गया। याद आता है जब गांव जाता था तो ‘अम्मा’ क्या न खिला दें, इसी भागदौड़ मंे लगी रहती थीं। खाना खिलाते समय ढेर सारी नसीहतें देतींे कि कैसे शहर में रहना है, कोई ऐसा काम नहीं करना जिससे परेशानी हो। शहर आकर कई दिन तक वे बातें याद भी रहती थीं लेकिन जिंदगी के बखेड़े क्या कम हैं? झूठ नहीं बोलूंगा, इन्हीं बखेड़ों मंे माँ भी विस्मृत हो जाती थीं, तभी ‘भइया’ की चिट्ठी आती कि अम्मा याद कर रही है…। इसी तरह की भागमभाग के बीच एक दिन खबर मिली थी अम्मा नहीं रही। उस दिन गांव पहुंचा। इसके बाद महीने भर तक सचमुच अम्मा यादों मंे रहीं। बाद मंे कभी कोई जिक्र होता था तो याद आ जाती थी। उस दिन तीन मई को योगी जी अपनी माता जी से मिले तो फिर अम्मा की याद आयी।
खबर पढ़ी कि सुनील दत्त और नरगिस की बेटी नम्रता ने भी तीन मई को अपनी माँ को विशेष रूप से याद किया। नर्गिस दत्त की मृत्यु तीन मई को हुई थी। नम्रता ने याद किया कि कैंसर से पीड़ित माँ नर्गिस की सेवा वे और उनके पिता सुनील दत्त स्वयं कैसे करते थे। नम्रता ने अपने पिता सुनील दत्त को उस समय छिप-छिपकर रोते भी देखा था। सुनील दत्त का अथाह प्रेम भी नरगिस दत्त को नहीं बचा पाया था। नम्रता दत्त कहती हैं कि आज याद आता
है कि कैसे हम लोगांे ने हंसी और आंसुओं के बीच समय बिताया। सुनील दत्त और नरगिस दत्त की मुलाकात फिल्म मदर इंडिया की शूटिंग के दौरान हुई थी। पर्दे पर सुनील दत्त ने नरगिस के बेटे की भूमिका निभाई। इस फिल्म में एक दृश्य आग लगने का था और उसमंे नरगिस वास्तव में घिर गयी थीं तब सुनील दत्त ने जान पर खेलकर नरगिस को बचाया और इसके बाद ही वह नरगिस दत्त बन गयी थीं।
इस प्रकार की यादें कितने ही लोगों को आयी होंगी। उनको जिनकी माँ अब इस दुनिया मंे नहीं है और उनको भी जो अपनी माँ से दूर रह रहे हैं।
माँ को लेकर कभी-कभी अप्रिय खबरें भी पढ़ने को मिलती हैं। तुलसी बाबा ने पांच सौ साल पहले यूं ही नहीं लिख दिया था-
ससुरारि पियारि भई जब से
रिपु रूप कुटुम्ब भयो तब से…। व्यावहारिक रूप से यही देखा भी जा रहा है। उत्तर प्रदेश के महोबा जिले मंे लगभग दो साल पहले की एक घटना याद आती है। प्रकाशित समाचार के अनुसार सदर कोतवाली क्षेत्र के बिलवई गांव मंे रहने वाली हीराबाई की बेटे और बहू ने बेरहमी से पिटाई की। घर में रखे दस हजार रुपये
और तीन तोले सोने के आभूषण भी ले गये। वृद्धा हीराबाई ने इस मामले की रिपोर्ट शहर कोतवाली मंे दर्ज करायी थी।
इस रिपोर्ट का क्या हुआ, इसके बारे में हमें नहीं मालूम और न मालूम करने की इच्छा ही है लेकिन माँ के प्रति बेटे-बहू का ऐसा व्यवहार कोई आश्चर्य की बात नहीं रह गया है। बागवान जैसी फिल्में हमारे ही समाज का आईना हैं। माँ को बड़ी-बड़ी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं जिन्हें उनके बेटे-बेटियां भूल जाते हैं लेकिन जब बच्चों से उसी तरह का व्यवहार मिलता है तब प्रायश्चित भी होता है और माता-पिता की याद भी आती है लेकिन उस समय तक बहुत विलम्ब हो चुका होता है। इसलिए हमेशा याद रखना चाहिए कि माँ का स्नेह और आशीर्वाद जितना ज्यादा मिल सके, जीवन उतना ही सुखी और संतुष्ट रहेगा। समय के साथ विचारधाराएं बदलती हैं। आज, हमारे जैसे लोग, जो 60 वर्ष को पार कर चुके हैं, उनकी विचारधारा युवाओं और किशोरों से नहीं मिलती। इसी प्रकार जब वे 60 वर्ष की उम्र को पार करेंगे तो उनके बच्चों की विचारधारा नहीं मिलेगी। विचारधाराओं का द्वन्द्व तो चलता ही रहेगा लेकिन बड़ों के प्रति विशेष रूप से माता-पिता के प्रति दायित्व को यदि हम नहीं निभाएंगे तो अपने बच्चों से अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? (हिफी)