लेखक की कलम

पदलोलुपता से बिरत नेता मनमोहन सिंह

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और विश्व के जाने माने अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह का गत 26 दिसम्बर को रात में निधन हो गया। वह 92 वर्ष के थे। उनके निधन से देश के निवासियों ने एक कमी महसूस की है। एक ऐसा नेता चला गया जिसमें पदलोलुपता नाम की कोई चीज नहीं थी। वह वित्तमंत्री बने तब भी देश को उनकी जरूरत थी और प्रधानमंत्री बने तब भी इस देश को एक ऐसे प्रधानमंत्री की जरूरत थी जो विश्व की अर्थव्यवस्था के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था को खड़ा कर सके। उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा कि उन्हांेने आर्थिक नीति पर गहरी छाप छोड़ी है। भविष्य में अर्थव्यवस्था ही दुनिया की दिशा और दशा तय करने वाली है। डा. मनमोहन ंिसह यह बात समझते थे और भारत के वित्त मंत्री और वित्त सचिव रहने के दौरान ही आर्थिक उदारवाद की नीतियां लागू की गयी थीं। डा. मनमोहन सिंह को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि उनमंे राजनीतिक पद लिप्सा नहीं थी। आज कुर्सी पाने के लिए नई-नई साजिशें रची जाती हैं लेकिन डा. मनमोहन सिंह ने कभी भी कुर्सी का मोह नहीं दिखाया। आज के राजनेताओं को उनसे सीख लेनी चाहिए। यह देश डा. मनमोहन सिंह की सादगी को भी कभी नहीं भूल पाएगा। उन्हंे शत्-शत् नमन।
मनमोहन सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत के पंजाब में 26 सितम्बर,1932 को हुआ था। उनकी माता का नाम अमृत कौर और पिता का नाम गुरुमुख सिंह था। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया। यहाँ पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये जहाँ से उन्होंने पीएच. डी. की। तत्पश्चात् उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी. फिल. भी किया। उनकी पुस्तक इंडियाज एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड प्रोस्पेक्ट्स फॉर सेल्फ सस्टेंड ग्रोथ भारत की अन्तर्मुखी व्यापार नीति की पहली और सटीक आलोचना मानी जाती है। डॉ॰ सिंह ने अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर काफी ख्याति अर्जित की। वे पंजाब विश्वविद्यालय और बाद में प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकनामिक्स मंे प्राध्यापक रहे। इसी बीच वे संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन सचिवालय में सलाहकार भी रहे और 1987 तथा 1990 में जेनेवा में साउथ कमीशन में सचिव भी रहे। 1971 में डॉ॰ सिंह भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किये गये। इसके तुरन्त बाद 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया। इसके बाद के वर्षों में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के
अध्यक्ष भी रहे हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब डॉ॰ सिंह 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मन्त्री रहे। उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का प्रणेता माना गया है। आम जनमानस में ये साल निश्चित रूप से डॉ॰ सिंह के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमता रहा है।
1985 में राजीव गांधी के शासन काल में मनमोहन सिंह को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने निरन्तर पाँच वर्षों तक कार्य किया, जबकि 1990 में वह प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बनाए गए। जब पी.वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने मनमोहन सिंह को 1991 में अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित करते हुए वित्त मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंप दिया। इस समय डॉ॰ मनमोहन सिंह न तो लोकसभा और न ही राज्यसभा के सदस्य थे लेकिन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सरकार के मंत्री को संसद का सदस्य होना आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें 1991 में असम से राज्यसभा के लिए चुना गया।
मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में प्रस्तुत किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार के साथ जोड़ दिया। डॉ॰ मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया। लाइसेंस एवं परमिट गुजरे जमाने की चीज हो गई। निजी पूंजी को उत्साहित करके रुग्ण एवं घाटे में चलने वाले सार्वजनिक उपक्रमों हेतु अलग से नीतियाँ विकसित कीं। नई अर्थव्यवस्था जब घुटनों पर चल रही थी, तब पी. वी. नरसिम्हा राव को कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा। विपक्ष उन्हें नए आर्थिक प्रयोग से सावधान कर रहा था लेकिन श्री राव ने मनमोहन सिंह पर पूरा यकीन रखा। मात्र दो वर्ष बाद ही आलोचकों के मुँह बंद हो गए और उनकी आँखें फैल गईं। उदारीकरण के बेहतरीन परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में नजर आने लगे थे और इस प्रकार एक गैर राजनीतिक व्यक्ति जो अर्थशास्त्र का प्रोफेसर था, का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ ताकि देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके।
मनमोहन सिंह 1991 से राज्यसभा के सदस्य रहे। 1998 से 2004 में वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। मनमोहन सिंह ने प्रथम बार 72 वर्ष की उम्र में 22 मई 2004 से प्रधानमंत्री का कार्यकाल आरम्भ किया, जो अप्रैल 2009 में सफलता के साथ पूर्ण हुआ। इसके पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की अगुवाई वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पुनः विजयी हुआ और सिंह दोबारा प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दो बार बाईपास सर्जरी हुई थी। दूसरी बार फरवरी 2009 में विशेषज्ञ शल्य चिकित्सकों की टीम ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इनकी शल्य-चिकित्सा की। प्रधानमंत्री सिंह ने वित्तमंत्री के रूप में पी. चिदम्बरम को अर्थव्यवस्था का दायित्व सौंपा था, जिसे उन्होंने कुशलता के साथ निभाया लेकिन 2009 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रभाव भारत में भी देखने को मिला। भारत की बैंकिंग व्यवस्था का आधार मजबूत होने के कारण उसे उतना नुकसान नहीं उठाना पड़ा, जितना अमेरिका और अन्य देशों को उठाना पड़ा है। 26 नवम्बर 2008 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकियों ने हमला किया। दिल दहला देने वाले उस हमले ने देश को हिलाकर रख दिया था। तब सिंह ने शिवराज पाटिल को हटाकर पी. चिदम्बरम को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी और प्रणव मुखर्जी को नया वित्त मंत्री बनाया। 1987 में उपरोक्त पद्म विभूषण के अतिरिक्त भारत के सार्वजनिक जीवन में डॉ॰ सिंह को अनेकों पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं- 2002 में सर्वश्रेष्ठ सांसद, 1995 में इण्डियन साइंस कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार, 1993 और 1994 का एशिया मनी अवार्ड फॉर फाइनेन्स मिनिस्टर ऑफ द ईयर, 1994 का यूरो मनी अवार्ड फॉर द फाइनेन्स मिनिस्टर आफ द ईयर और 1956 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एडम स्मिथ पुरस्कार।
डॉ॰ सिंह ने कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। अपने राजनैतिक जीवन में वे 1991 से राज्य सभा के सांसद तो रहे ही, 1998 तथा 2004
की संसद में विपक्ष के नेता भी रह चुके हैं। (हिफी)

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