कश्मीरी पंडितों का यक्ष प्रश्न

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
हम भारतीय गणतंत्र के 75 वर्ष पूरे कर चुके हैं लेकिन आज भी कुछ सवाल यक्ष प्रश्न बन कर खड़े हैं। इसमें एक कश्मीर से पलायन करने के लिए मजबूर किए गए हिन्दुओं के पुनर्वास की व्यवस्था करने में नाकाम होना शामिल हैं। तमाम सरकारी दावे और चुनावी घोषणा पत्र तक सिमट कर रह गए हैं।
कश्मीर के जन सांख्यिकीय आंकड़ों पर नजर डालें तो स्वतंत्रता के समय वहां घाटी में 15 प्रतिशत कश्मीरी पंडितों की आबादी थी जो आज 1 प्रतिशत से नीचे होकर 0 प्रतिशत की ओर बढ़ गई है। हाल ही के इतिहास में कश्मीर के ज.स. सांख्यिकी में यदि परिवर्तन का सबसे बड़ा कारक खोजें तो वह एक दिन, यानि 19 जनवरी 1990 के नाम से जाना जाता है। कश्मीरी पंडितों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ देने की इस घटना की यह भीषण और वीभत्स कथा 1989 में आकार लेनें लगी थी। पाकिस्तान प्रेरित और प्रायोजित आतंकवादी और अलगाववादी यहाँ अपनी जड़ें बैठा चुके थे। भारत सरकार आतंकवाद की समाप्ति में लगी हुई थी तब के दौर में वहां रह रहे ये कश्मीरी पंडित भारत सरकार के मित्र और इन आतंकियों और अलगाववादियों के दुश्मन और खबरी सिद्ध हो रहे थे। इस दौर में कश्मीर में अलगाववादी समाज और आतंकवादियों ने इस शातिप्रिय हिन्दू पडित समाज के विरुद्ध चल रहे अपनें धीमे और छदम संघर्ष को घोषित संघर्ष में बदल दिया। इस भयानक नरसंहार पर फारुक अब्दुल्ला की रहस्यमयी चुप्पी और कश्मीरी पंडित विरोधी मानसिकता केवल इस घटना के समय ही सामने नहीं आई थी। तब के दौर में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला अपने पिता शेख अब्दुल्ला के कदमों पर चलते हुए अपना कश्मीरी पंडित विरोधी आचरण कई बार सार्वजनिक कर चुके थे।
19 जनवरी 1990 के मध्ययुगीन, भीषण और पाशविक दिन के पूर्व जमात-ए-इस्लामी द्वारा कश्मीर में अलगाववाद को समर्थन करने और कश्मीर को हिन्दू विहीन करने के उद्देश्य से हिज्बुल मुजाहिदीन की स्थापना हो गई थी। इस हिजबुल मुजाहिदीन ने 4 जनवरी 1990 को कश्मीर के स्थानीय समाचार पत्र में एक विज्ञप्ति प्रकाशित कराई जिसमें स्पष्टतः सभी कश्मीरी पडितों को कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई थी। इस क्रम में उधर पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री बेनजीर ने भी टीवी पर कश्मीरियों को भारत से मुक्ति पानें का एक भड़काऊ भाषण दे दिया। घाटी में खुले आम भारत विरोधी नारे लगने लगे। घाटी की मस्जिदों में अजान के स्थान पर हिन्दुओं के लिए धमकियां और हिन्दुओं को खदेड़ने या मार-काट देने के जहरीले आव्हान बजने लगे। एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र अल-सफा ने भी इस विज्ञप्ति का प्रकाशन किया था। इस भड़काऊ, नफरत, धमकी, हिंसा और भय से भरे शब्दों और आशय वाली इस विज्ञप्ति के प्रकाशन के बाद कश्मीरी पडितों में गहरे तक भय, डर घबराहट का संचार हो गया। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि तब तक कश्मीरी पंडितों के विरोध में कई छोटी बड़ी घटनाएं वहां सतत घाट ही रही थीं और कश्मीरी प्रशासन और भारत सरकार दोनों ही उन पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे थे।
19 जनवरी 1990 की भीषणता को और कश्मीर और भारत सरकार की विफलता को इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि पूरी घाटी में कश्मीरी पडितों के घर और दुकानों पर नोटिस चिपका दिए गए थे कि 24 घंटों के भीतर वे घाटी छोड़ कर चले जाएँ या इस्लाम ग्रहण कर कड़ाई से इस्लाम के नियमों का पालन करें। घरों पर धमकी भरें पोस्टर चिपकाने की इस बदनाम घटना से भी भारत और कश्मीरी सरकारें चेती नहीं और परिणाम स्वरुप पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के घर धू-धू जल उठे। तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला इन घटनाओं पर रहस्यमयी आचरण अपनाए रहे, वे कुछ करनें का अभिनय करते रहे और कश्मीरी पंडित अपनी ही भूमि पर ताजा इतिहास की सर्वाधिक पाशविक बर्बर क्रूरतम गतिविधियों का खुलेआम शिकार होते रहे, घाटी में पहले से फैली अराजकता चरम पर पहुँच गई। कश्मीरी पंडितों के सर काटे गए, कटे सर वाले शवों को चौक-चौराहों पर लटकाया गया। बलात्कार हुए, कश्मीरी पंडितों की स्त्रियों के साथ पाशविक- बर्बर अत्याचार हुए। गर्म सलाखें शरीर में दागी गई और इज्जत आबरू के भय से सैकड़ों कश्मीरी पंडित स्त्रियों ने आत्महत्या करनें में ही भलाई समझी। बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों के शवों का समुचित अंतिम संस्कार भी नहीं होनें दिया गया था, कश्यप ऋषि के संस्कारवान कश्मीर में संवेदनाएं समाप्त हो गई और पाशविकता- बर्बरता का वीभत्स नंगा नाच दिखा था। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फंट और हिजबुल मुजाहिदीन ने जाहिर और सार्वजनिक तौर पर इस हत्याकांड का नेतृत्व किया था। ये सब एकाएक नहीं हुआ था, हिजबुल और अलगाववादियों का अप्रत्यक्ष समर्थन कर रहे फारुख अब्दुल्ला तब भी चुप रहे थे या कार्यवाही करने का अभिनय मात्र कर रहे थे जब भाजपाई और कश्मीरी पंडितों के नेता टीकालाल टपलू की 14 सित. 1989 को दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी।
अलगाववादियों को कश्मीर प्रशासन का ऐसा वस्द हस्त प्राप्त रहा कि बाद में उन्होंने कश्मीरी पंडित और श्रीनगर के न्यायाधीश एन. गंजू की भी हत्या की और प्रतिक्रया होनें पर 320 कश्मीरी स्त्रियों, बच्चों और पुरुषों की हत्या कर दी थी। ऐसी कितनी ही हृदय विदारक, अत्याचारी और बर्बर घटनाएं कश्मीरी पंडितों के साथ घटती चली गईं और दिल्ली सरकार लाचार देखती भर रही और उधर श्रीनगर की सरकार तो जैसे खुलकर इन आतताइयों के पक्ष में आ गई थी। इस पृष्ठभूमि में हिजबुल और जेकेएलएफ का दुस्साहस बढ़ना स्वाभाविक ही था और वह निर्णायक तौर पर कश्मीरी पंडितों की दुकानों-घरों पर 24 घंटे में घाटी छोड़ देने या मार दिए जानें की धमकी के नोटिस चस्पा करने की हद तक बढ़ गया। इसके बाद जो हुआ वह एक दुखद, क्षोभजनक, वीभत्स, दर्दनाक और इतिहास को दहला देनें वाले काले अध्याय के रूप में सामनें आया।
अन्ततोगत्वा वही हुआ जो वहां के अलगाववादी, आतंकवादी हिजबुल और जेकेएलफ चाहते थे। कश्मीरी पंडित पूर्व की घटनाओं, घरों पर नोटिस चिपकाए जानें और बेहिसाब कत्लेआम से घबराकर 19 जन. 1990 को हिम्मत हार गए। फारुख अब्दुल्ला के कुशासन में आतंकवाद और अलगाववाद चरम पर आकर विजयी हुआ और इस दिन साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडित अपने घरों, दुकानों, खेतों, बागों और संपत्तियों को छोड़कर विस्थापित होकर दर-दर की ठोकरें खानें को मजबूर हो गए। कई कश्मीरी पंडित अपनों को खोकर गए, अनेक अपनों का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए, और हजारों तो यहाँ से निकल ही नहीं पाए और मार-काट डाले गए। विस्थापन के बाद का जो दौर आया वह भी किसी प्रकार से आतताइयों द्वारा दिए गए कष्टों से कम नहीं रहा कश्मीरी पंडितों के लिए। वे सरकारी शिविरों में नारकीय जीवन जीनें को विवश हुए। हजारों कश्मीरी पंडित दिल्ली, मेरठ, लखनऊ जैसे नगरों में सनस्ट्रोक से इसलिए मृत्यु को प्राप्त हो गए क्योंकि उन्हें गर्म मौसम में रहने का अभ्यास नहीं था। उनको बसने का आश्वासन दिया गया था जो अब तक पूरा नहीं हो सका है। (हिफी)