धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-17) अर्जुन ने की चतुर्भुज रूप दिखाने की प्रार्थना

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘देवेश’ और ‘जगन्निवास’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर-जो देवताओं के भी स्वामी हों, उन्हें ‘देवेश’ कहते हैं तथा जो जगत् के आधार और सर्वव्यापी हों उन्हें ‘जगन्निवास’ कहते हैं। इन दोनों सम्बोधनों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप समस्त देवों के स्वामी साक्षात् सर्वाधार सर्वव्यापी परमेश्वर हैं, अतः आप ही उस अपने देवरूप को प्रकट कर सकते हैं।
प्रश्न-‘प्रसीद’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-‘प्रसीद’ पद से अर्जुन भगवान् को प्रसन्न होने के लिये कहते हैं। अभिप्राय यह है कि आप शीघ्र ही इस विकराल रूप को समेटकर मुझे अपना चतुर्भुज स्वरूप दिखलाने की कृपा कीजिये।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते।। 46।।
प्रश्न-‘तथा’ के साथ ‘एव’ के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-महाभारत युद्ध में भगवान् ने शó-ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और अर्जुन के रथ पर वे अपने हाथों में चाबुक और घोड़ों की लगाम थामे विराजमान थे परन्तु इस समय अर्जुन भगवान् के इस द्विभुज रूप को देखने से पहले उस चतुर्भुज रूप को देखना चाहते हैं, जिसके हाथों में गदा और चक्रादि हैं। इसी अभिप्राय से ‘तथा’ के साथ ‘एव’ पद का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न-‘तेन एव’ पदों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में आये हुए ‘तत् देवरूपम् एवं एव’ को लक्ष्य करके ही अर्जुन कहते हैं कि आप वही चतुर्भुुज रूप हो जाइये। यहाँ ‘एव’ पद से यह भी ध्वनित होता है कि अर्जुन प्रायः सदा भगवान् के द्विभुज रूप का ही दर्शन करते थे, परन्तु यहाँ ‘चतुर्भुज रूप’ को ही देखना चाहते हैं।
प्रश्न-चतुर्भुज रूप श्रीकृष्ण के लिये कहा गया है या देवरूप कहने से श्री विष्णु के लिये?
उत्तर-श्री विष्णु के लिये कहा गया है, इसमें निम्नलिखित कई हेतु हैं-
(1) यदि चतुर्भुज रूप श्रीकृष्ण का स्वाभाविक रूप होता तो फिर ‘गदिनम्’ और ‘चक्रहस्तम्’ कहने की कोई आवश्यकता न थी, क्योंकि अर्जुन उस रूप को सदा देखते ही थे। वरं चतुर्भुज कहना भी निष्प्रयोजन था अर्जुन का इतना ही कहना पर्याप्त होता कि मैं अभी कुछ देर पहले जो रूप देख रहा था, वही दिखलाइये।
(2) पिछले श्लोक में ‘देवरूपम्’ पद आया है, जो आगे इक्यावनवें श्लोक में आये हुए ‘मानुष रूपम्’ से सर्वथा विलक्षण अर्थ रखता है। इससे भी सिद्ध है कि देवरूप से श्री विष्णु का ही कथन किया गया है।
(3) आगे पचासवें श्लोक में आये हुए ‘स्वकं रूपम्’ के साथ ‘भूयः‘ और ‘सौम्यवपुः‘ के साथ ‘पुनः‘ पद आने से भी यहाँ पहले चतुर्भुज और फिर द्विभुज मानुष रूप दिखलाया जाना सिद्ध होता है।
(4) आगे बावनवें श्लोक में ‘सुदर्शनम्’ पद से यह दिखलाया गया है कि यह रूप अत्यन्त दुर्लभ है और फिर कहा गया है कि देवता भी इस रूप को देखने की नित्य आकांक्षा करते हैं। यदि श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप स्वाभाविक था, तब तो वह रूप मनुष्यों को भी दीखता था फिर देवता उसकी सदा आकांक्षा क्यों करने लगे। यदि यह कहा जाय कि विश्वरूप के लिए ऐसा कहा गया है तो ऐसे घोर विश्वरूप की देवताओं को कल्पना भी क्यों होने लगी, जिसकी दाढ़ों में भीष्म-द्रोणादि चूर्ण हो रहे हैं। अतएव यही प्रतीत होता है कि देवतागण बैकुण्ठवासी श्रीविष्णु रूप के दर्शन की ही आकांक्षा करते हैं।
(5) विराट् स्वरूप की महिमा अड़तालीसवें श्लोक में न वेदयज्ञाष्ययनैः‘ इत्यादि के द्वारा गायी गयी, फिर तिरपनवें श्लोक में ‘नाहं वेर्दर्न तपसा’ आदि में पुनः वैसा ही बात आती है।
यदि दोनों जगह एक ही विराट् रूप की महिमा है तो इसमें पुनरुक्ति दोष आता है इससे भी सिद्ध है कि मानुष रूप दिखलाने के पहले भगवान् ने अर्जुन को चतुर्भुज देवरूप दिखलाया और उसी की महिमा में तिरपनवाँ श्लोक कहा गया।
(6) इसी अध्याय के चौबीसवें और तीसवें श्लोक में अर्जुन ने ‘विष्णो’ पद से भगवान् को सम्बोधित भी किया है। इससे भी उनके विष्णु रूप देखने की आकांक्षा प्रतीत होती है।
इन हेतुओं से यही सिद्ध होता है कि यहाँ अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से चतुर्भुज विष्णुरूप दिखलाने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं।
प्रश्न-‘सहóबाहो’ और ‘विश्वभूर्ते’ सम्बोधन देकर चतुर्भुज होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-अर्जुन को भगवान् जो हजारों हाथों वाले विराट् स्वरूप से दर्शन दे रहे हैं उस रूप को समेट कर चतुुर्भुज रूप होने के लिये अर्जुन इन नामों से सम्बोधन करके भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं।
मया प्रसन्ननेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम।। 47।।
प्रश्न-‘मया’ के साथ ‘प्रसन्नेन’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारी भक्ति और प्रार्थना से प्रसन्न होकर तुुम पर दया करके अपना गुण, प्रभाव और तत्त्व समझाने के लिये मैंने तुमको यह अलौकिक रूप दिखलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हें भय, दुःख और मोह होने का कोई कारण ही नहीं था, फिर तुम इस प्रकार भय से व्याकुल क्यों हो रहे हो?
प्रश्न-‘आत्मयोगात्’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे इस विराट् रूप के दर्शन सब समय और सबको नहीं हो सकते। मैं जिस समय अपनी योग शक्ति से इसके दर्शन कराता हूँ उसी समय होते हैं। वह भी उसी को होते हैं जिसको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो दूसरे को नहीं। अतएव इस रूप का दर्शन प्राप्त करना बड़े सौभाग्य की बात
है। -क्रमशः (हिफी)