दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।। 2।।
आइए समझें श्रीमद भागवत गीता

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।
-प्रधान सम्पादक
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।। 2।।
प्रश्न-दुर्योधन को ‘राजा’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- संजय के द्वारा दुर्योधन को ‘राजा’ कहे जाने मंे कई भाव हो सकते हैं-?
(क) दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासन का समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे।
(ख) संत सभी को आदर दिया करते हैं और संजय संत-स्वभाव थे।
(ग) पुत्र के प्रति आदर सूचक विशेषण का प्रयोग सुनकर धृतराष्ट्र को प्रसन्नता होगी।
प्रश्न-व्यूहरचनायुक्त पाण्डव-सेना को देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास गया, इसका क्या भाव है?
उत्तर-भाव यह है कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना इतने विचित्र ढंग से की गयी थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गये ओर अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देने के लिए द्रोणाचार्य के पास दौड़ गये। उन्होंने सोचा कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना देख-सुनकर धनुर्वेद के महान आचार्य गुरू द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेना की और भी विचित्र रूप से व्यूहरचना करने के लिए पितामह को परामर्श देंगे।धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय
प्रश्न-दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापति के पास क्यों गये? उन्हीं को अपने पास बुलाकर सब बातें क्यों नहीं समझा दीं?
उत्तर-यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे, कौरव सेना में गुरू द्रोणाचार्य का स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्व का था। सेना में जिन प्रमुख योद्धाओं की जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँ से हट जाते हैं तो सैनिक-व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। इसलिये द्रोणाचार्य को अपने स्थान से हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होने के साथ ही गुरु होने के कारण आदर के पात्र थे, तथा दुर्योधन को उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना था, इसलिए भी उन्हें सम्मान देकर उनका प्रियपात्र बनना उन्हें अभीष्ट था। पारमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीति में बुद्धिमान पुरुष अपना काम निकालने के लिये दूसरों का आदर किया करते हैं। इन सभी दृष्टियों से उनका वहाँ जाना उचित ही था।
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