धर्म-अध्यात्म

वट की महत्ता और सावित्री का धैर्य

हिन्दू धर्म में व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन का विशेष महत्व है और ये व्रत-उपवास आदि हमारे जीवन और पर्यावरण से भी जुड़े हैं। ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को वट-सावित्री पूजन किया जाता है। सामान्य रूप से माना जाता है कि यह स्त्रियों के अखंड सौभाग्य के लिए किया जाने वाला व्रत है क्योंकि इसी दिन एक राजा की पुत्री सावित्री, जिसने अपनी पसंद से एक सामान्य लकड़हारे को अपने पति के रूप में चुना था और ज्योतिषियों ने यह भी बताया था कि उसकी उम्र बहुत कम है, इसके बावजूद उस राजकुमारी ने अपने धैर्य और निष्ठा से न केवल अपने पति को यमराज से वापस ले लिया बल्कि अपने सास-ससुर को वैभवशाली भी बनाया। इस व्रत में दो मुख्य पात्र हैं- सावित्री और वट वृक्ष। सावित्री हमारे मानव समाज की प्रतीक है जो शादी करने के बाद जिस घर में जाती है, उसे हर प्रकार से सम्पन्न करती है और वट वृक्ष, जिसके नीचे मृत सत्यवान को जीवन मिलता है। वट वृक्ष आक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत है और गर्मी में बेहाल होकर लोग बेहोश हो जाते हैं। ऐसे में वट वृक्ष के नीचे लिटाने से उन्हंे पर्याप्त आक्सीजन मिलती है। सत्यवान के बारे में भी संभवतः यही स्थिति रही होगी और उसकी पत्नी सावित्री ने ऐसे हालात में घबड़ाने की जगह बहुत ही धैर्य से काम किया। सत्यवान जीवित हो गये, यह निश्चित रूप से एक चमत्कार था। इसलिए सावित्री और वट वक्ष को हम आज भी नमन करते हैं, उनका पूजन करते हैं। वृक्ष हमारे पर्यावरण की रक्षा के लिए कितने महत्वपूर्ण है, यह बात आज समूचा विश्व समझने लगा है। इसीलिए पेड़ कम से कम काटनेे और वृक्षारोपण करने की सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर योजनाएं भी चलायी जा रही हैं।
वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।
प्राचीनकाल में मद्रदेश में अश्वपति नाम के एक राजा राज करते थे। वह बड़े धर्मात्मा, ब्राह्मण भक्त, सत्यवादी और जितेंद्रिय थे। राजा को सब प्रकार का सुख था परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने संतान प्राप्ति की कामना से अठारह वर्षों तक सावित्री देवी की कठोर तपस्या की। सावित्री देवी ने उन्हें एक तेजस्विनी कन्या की प्राप्ति का वर दिया।
यथा समय राजा की बड़ी रानी के गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। राजा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखा। राजकन्या शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिनों दिन बढने लगी।
धीरे-धीरे उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके रूप लावण्य को जो भी देखता उस पर मोहित हो जाता।
जब राजा के विशेष प्रयास करने पर भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला तो उन्होंने एक दिन सावित्री से कहा, ‘‘बेटी! अब तुम विवाह के योग्य हो गई हो इसलिए स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो।’’
पिता की आज्ञा स्वीकार कर सावित्री योग्य मंत्रियों के साथ स्वर्ण रथ पर बैठ कर यात्रा के लिए निकली। कुछ दिनों तक ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के तपोवनों और तीर्थों में भ्रमण करने के बाद वह राजमहल में लौट आई। उसने पिता के साथ देवर्षि नारद को बैठे देख कर उन दोनों के चरणों में श्रद्धा से प्रणाम किया।
महाराज अश्वपति ने सावित्री से उसकी यात्रा का समाचार पूछा। सावित्री ने कहा, ‘‘पिता जी! तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान सर्वथा मेरे योग्य हैं। अतः मैंने मन से उन्हीं को अपना पति चुना है।’’ नारद जी सहसा चैंक उठे और बोले, ‘‘राजन! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल कर दी है। सत्यवान के पिता शत्रुओं के द्वारा राज्य से वंचित कर दिए गए हैं, वह वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अंधे हो चुके हैं। सबसे बड़ी कमी यह है कि सत्यवान की आयु अब केवल एक वर्ष ही शेष है।’’ नारद जी की बात सुनकर राजा अश्वपति व्यग्र हो गए। उन्होंने सावित्री से कहा, ‘‘बेटी! अब तुम फिर से यात्रा करो और किसी दूसरे योग्य वर का वरण करो।’’
सावित्री सती थी। उसने दृढ़ता से कहा, ‘‘पिताजी! सत्यवान चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु, अब तो वही मेरे पति हैं। जब मैंने एक बार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया फिर मैं दूसरे पुरुष का वरण कैसे कर सकती हूं?’’
सावित्री का निश्चय दृढ़ जानकर महाराज अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। धीरे-धीरे वह समय भी आ पहुंचा जिसमें सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। सावित्री ने उसके चार दिन पूर्व से ही निराहार व्रत रखना शुरू कर दिया था। पति एवं सास-ससुर की आज्ञा से सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-फूल और लकड़ी लेने के लिए गई। अचानक वृक्ष से लकड़ी काटते समय सत्यवान के सिर में भयानक दर्द होने लगा और वह पेड़ से नीचे उतरकर पत्नी की गोद में लेट गया। उस समय सावित्री को लाल वस्त्र पहने भयंकर आकृति वाला एक पुरुष दिखाई पड़ा। वह साक्षात यमराज थे। उन्होंने सावित्री से कहा, ‘‘तू पतिव्रता है। तेरे पति की आयु समाप्त हो गई है। मैं इसे लेने आया हूं।’’ इतना कह कर यमराज ने सत्यवान के शरीर से सूक्ष्म जीव को निकाला और उसे लेकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल दी। सावित्री की बुद्धिमत्तापूर्ण और धर्मयुक्त बातें सुनकर यमराज का हृदय पिघल गया। सावित्री ने उनसे अपने सास-ससुर की आंखें अच्छी होने के साथ राज्य प्राप्ति का वर, पिता को पुत्र प्राप्ति का वर और स्वयं के लिए पुत्र वती होने का आशीर्वाद भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार सावित्री ने सतीत्व के बल पर अपने पति को मृत्यु के मुख से छीन लिया। (हिफी)

 

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