धर्म-अध्यात्म

वास्तु कला की बेजोड़ कृति है महासू मंदिर

पर्वतीय क्षेत्र के प्राचीन हिमाचल प्रदेश की सीमा से सटे उत्तराखंड में देहरादून जनपद के आखिरी राजस्व ग्राम हनोल में पड़ने वाला महासू मंदिर देश-विदेश के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। जौनसार बावर क्षेत्र में समुद्रतल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित महासू मंदिर का निर्माण घाटापहाड़ यानी शिवालिक पर्वत से ढुलाई कर लाए गए पत्थरों से हुआ है।
वास्तुकला की बेजोड़ कलाकृति इस मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है। महासू देवता का अवतरण कब और कैसे हुआ, इसका सही अनुमान लगाना कठिन है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के रिकार्ड में महासू देवता का मंदिर 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। इस प्राचीन मंदिर का संरक्षण पुरातत्त्व विभाग ही कर रहा है। धार्मिक मान्यतानुसार द्वापर युग में अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय बावर क्षेत्र में भी गुजारा था। मान्यता है की पांडवों ने घाटापहाड़ यानी शिवालिक पर्वत से पत्थरों की ढुलाई कर विख्यात शिल्पकार विश्वकर्मा से हनोल मंदिर का निर्माण करवाया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह पर सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन द्वारा घाटा पहाड़ से लाया गया, एक ही विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है, जो आज भी विद्यमान है। मान्यता है की बावर क्षेत्र में पहले राक्षसों का जबरदस्त आतंक था। कुछ राक्षसों का वध पांडवों ने तभी कर दिया था, लेकिन जो राक्षस किसी तरह बच गए उन्होंने पांडवों के क्षेत्र से चले जाने के बाद आतंक मचाना शुरू कर दिया। लोक मान्यतानुसार मैंद्रथ गांव के पास तालाब किनारे किरमिर नामक राक्षस का वास था। इस राक्षस को हर रोज इलाके से एक नरबली चाहिए होती थी। इसी के चलते क्षेत्र में मानव आबादी तेजी से घटने लगी। तब मैंद्रथ के हुणाभाट को सपने में देववाणी सुनाई दी की इस राक्षस से छुटकारा पाने को कश्मीर जाना होगा। इसके बाद हुणाभाट किसी तरह कश्मीर पहुंचा, जहां उसने चार महासू भाइयों को अपनी व्यथा बताई। ब्राह्मण की व्यथा सुन बाशिक महासू, पावसी महासू व चालदा महासू चारों भाई अपने वीरों और माता देवलाड़ी के साथ मैंद्रथ गांव के पास प्रकट हुए। बोठा व चालदा महासू के आदेश पर उनके सबसे पराक्रमी वीर यानी सेनापति वीर समेत कई अन्य राक्षसों का वध कर इलाके को राक्षसों के आतंक से मुक्ति दिलाई। क्षेत्रवासियों के आग्रह पर चारों महासू भाइयों ने अपने चार वीरों व माता देवलाड़ी के साथ हनोल मंदिर में ही रहने का वचन दिया। तब से लेकर जौनसार-बावर के लोग महासू को कुल देवता के रूप में पूजते आ रहे है।चार दरवाजे- महासू मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह तक चार दरवाजे हैं। प्रवेश द्वार की छत पर नवग्रह केतु, राहु, सूर्य, सोम, बृहस्पति, बुध, शुक्र, शनि व मंगल की कलाकृति बनी है। माला स्वरूप पहले द्वार पर विभिन्न देवी-देवताओं की कई कलाकृतियां हैं। दूसरे द्वार और मंदिर के कार सेवक बाजगी लोग ढोल-नगाड़े के साथ पूजा-पाठ में सहयोग करते है। तीसरे द्वार पर सभी लोग श्रद्धालु पर्यटक माथा टेकते है। अंतिम चैथे द्वार से गर्भगृह में सिर्फ पुजारी को जाने की छूट है और वह भी पूजा के समय। मंदिर परिसर के खुले मैदान में रखे सदियों पुराने शीशे के छोटे आकार के दो गोले पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। (हिफी)

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