
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-10)
समुद्र मंे नदियों की तरह समा गये वीर
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘अवनिपालसंगैः‘ और ‘सह’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अवनिपाल’ शब्द राजाओं का वाचक है और ऐसे राजाओं के बहुत से समूहों का वाचक ‘अवनिपालसंगैः‘ पद है। उसका और ‘सह’ पद का प्रयोग करके अर्जुन ने यह दिखलाया है कि केवल धृतराष्ट्र पुत्रों को ही मैं आपके अंदर प्रविष्ट होते नहीं देख रहा हूँ। उन्हीं के साथ मैं उन सब राजाओं के समूहों को भी आपके अंदर प्रवेश करते देख रहा हूँ जो दुर्योधन की सहायता करने के लिये आये थे।
प्रश्न-भीष्म और द्रोण के नाम अलग गिनाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पितामह भीष्म और गुरु द्रोण कौरव सेना के सर्व प्रधान महान योद्धा थे। अर्जुन के मत में इनका परास्त होना या मारा जाना बहुत ही कठिन था। यहाँ उन दोनों के नाम लेकर अर्जुन यह कह रहे हैं कि भगवान् दूसरों के लिये तो कहना ही क्या है? मैं देख रहा हूँ, भीष्म और द्रोण सरीखे महान योद्धा भी आपके भयानक विकराल मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
प्रश्न-सूत्र पुत्र के साथ ‘असो’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-वीरवर कर्ण से अर्जुन की स्वाभाविक प्रतिद्वन्द्विता थी। इसलिये उनके नाम के साथ ‘असौ’ विशेषण का प्रयोग करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि अपनी शूरवीरता के दर्प में जो कर्ण सबको तुच्छ समझते थे। वे भी आज आपके विकराल मुखों में पड़कर नष्ट हो रहे हैं।
प्रश्न-‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है तथा ‘सह’ पद का प्रयोग करके ‘अस्मदीयैः’ एवं ‘योधमुख्पैः’ इन दोनों पदों से क्या बात कही गयी है?
उत्तर-‘अपि’ तथा प्रश्न में आये हुए अन्यान्य पदों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि केवल शत्रु पक्ष के वीर ही आपके अंदर नहीं प्रवेश कर रहे हैं, हमारे पक्ष के जो मुख्य-मुख्य वीर योद्धा हैं, शत्रु पक्ष के वीरों के साथ-साथ उन सबको भी मैं आपके विकराल मुखों में प्रवेश करते देख रहा हूँ।
प्रश्न-‘स्वरमाणाः’ पद किनका विशेषण है और इसके प्रयोग का क्या भाव है तथा ‘मुखानि’ के साथ ‘दंष्ट्राकरालानि’ और ‘भयानकानि’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-‘स्वरमाणाः’ पूर्व श्लोक में वर्णित दोनों पक्षों के सभी योद्धाओं का विशेषण है। दंष्ट्राकरालानि उन मुखों का विशेषण है जो बड़ी-बड़ी भयानक दाढ़ों के कारण बहुत विकराल आकृति के हों और भयानकानि का अर्थ है-जो देखने मात्र से भय उत्पन्न करने वाले हों। यहाँ इन पदों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि पिछले श्लोक में वर्णित दोनों पक्ष के सभी योद्धाओं को मैं बड़े बैग के साथ दौड़-दौड़कर आपके भयंकर मुखों में प्रविष्ट होकर नष्ट हो रहे हैं।
प्रश्न-कितने ही चूर्णित मस्तकों सहित आपके दाँतों में फँसे हुए दीखते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि उन सबको केवल आपके मुखों में प्रविष्ट होते ही नहीं देख रहा हूँ उनमें से कितनों को ऐसी बुरी दशा में भी देख रहा हूँ कि उनके मस्तक चूर्ण हो गये हैं और वे बुरी तरह से आपके दाँतों में फँसे हुए हैं।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। 28।।
प्रश्न-इस श्लोक में नदियों के समुद्र में प्रवेश करने का दृष्टान्त देकर प्रवेश होने वालों के लिये ‘नरलोकवीराः‘ विशेषण किस अभिप्राय से दिया गया है तथा मुखों के साथ ‘अभिविज्वलन्ति’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस श्लोक में उन भीष्म-द्रोणादि श्रेष्ठ शूरवीर पुरुषों के प्रवेश करने का वर्णन किया गया है, जो भगवान की प्राप्ति के लिये साधन कर रहे थे तथा जिनको बिना ही इच्छा के युद्ध में प्रवृत्त होना पड़ा था और जो युद्ध में मरकर भगवान् को प्राप्त करने वाले थे। इसी हेतु से उनके लिये ‘नरलोकवीराः’ विशेषण दिया गया है। वे भौतिक युद्ध में जैसे महान् वीर थे वैसे ही भगवत्प्राप्ति के साधन रूप आध्यात्मिक युद्ध में भी काम आदि शत्रुओं के साथ बड़ी वीरता से लड़ने वाले थे। उनके प्रवेश में नदी और समुद्र का दृष्टान्त देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे नदियों के जल स्वाभाविक ही समुद्र की ओर दौड़ते हैं और अन्त में अपने नाम रूप को त्यागकर समुद्र ही बन जाते हैं, वैसे ही ये शूरवीर भक्तजन भी आपकी ओर मुख करके दौड़ रहे हैं और आपके अंदर अभिन्न भाव से प्रवेश कर रहे है।
यहाँ मुखों के साथ ‘अभिविज्वलन्ति’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे समुद्र में सब ओर से जल ही जल भरा रहता है और नदियों का जल उसमें प्रवेश करके उसके साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही आपके सब मुख भी सब ओर से अत्यन्त ज्योतिर्मय हैं और उनमें प्रवेश करने वाले शूरवीर भक्तजन भी आपके मुखों की महान् ज्योति में अपने बाह्य रूप को जलाकर स्वयं ज्योतिर्मय होकर आप में एकता को प्राप्त हो रहे हैं।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृ0वेगाः।। 29।।
प्रश्न-इस श्लोक में प्रज्वलित अग्नि और पतंगों का दृष्टांत देकर भगवान् के मुखों में सब लोगों के प्रवेश करने की बात कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस श्लोक में पिछले श्लोक में बतलाये हुए भक्तों से भिन्न उन समस्त साधारण लोगों के प्रवेश का वर्णन किया गया है, जो इच्छापूर्वक युद्ध करने के लिये आये थे, इसीलिये प्रज्वलित अग्नि और पतंगों का दृष्टांत देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे मोह में पड़े हुए पतंग नष्ट होने के लिये ही इच्छापूर्वक बड़े वेग से उड़-उड़कर अग्नि में प्रवेश करते हैं, वैसे ही सब लोग भी आपके प्रभाव को न जानने के कारण मोह में पड़े हुए हैं और अपना नाश करने के लिये ही पतंगों की भाँति दौड़-दौड़कर आपके मुखों में प्रविष्ट हो रहे हैं।-क्रमशः (हिफी)