अध्यात्म

धर्मध्वज थे आदि शंकराचार्य

 

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
आदिगुरु शंकराचार्य का जन्म केरल प्रांत की आलबाई नदी के किनारे बसे एक गांव कालटी में 788ई. में नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी मां का नाम सुभ्रदा और पिता को लोग शिवगुरू कहकर बुलाते थे। दोनांे पति-पत्नी उच्च आदर्शों एवं विचारों के थे। पिता अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण नित्य पूजा-पाठ, धर्म-कर्म में विशेष रुचि लेते थे। विवाह के काफी समय बाद शिवगुरु के घर शंकर का जन्म हुआ, किन्तु उनकी 3 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। संभवतः भाग्य में ऐसा ही लिखा था कि संतान यदि हुई तो पिता का सुख नहीं भोगेगी।
घर का सारा बोझ बेसहारा मां पर पड़ा। मां को उनके पालन पोषण में कठिनाई भी हुई उसका एक ही लक्ष्य था, शंकर शिक्षित हो। तीन वर्ष की अल्पायु में ही जब शंकर ने अक्षराभ्यास प्रारंभ किया तो उसके गुरु बालक की कुशाग्र बुद्धि देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वह जो भी सुनता एकाग्र होकर सुनता और सुने हुए को तत्काल ही सुनाने में सक्षम था। उसकी प्रतिभा से सभी प्रभावित थे। पांच वर्ष की आयु में उसने लौकिक साहितय का अध्ययन समाप्त कर जब वेद वेदांगों के निमित गुरूकुल में प्रवेश लिया तो वेद मंत्रों को कंठस्थ करते ही उनके गूढ़ अर्थ अपने सहपाठियों को समझाया करते। उसी अल्पायु में जब बालक शंकर ने अपनी विलक्षण बुद्धि से बाल बोध संग्रह की रचना कर डाली तो सभी दंग रहे गये। मां उसे स्नेह से दुलारतीं क्योेंकि उसी पर जीवन की शेष आशाएं केंद्रित किए बैठी थीं।
आठ वर्ष की आयु में शंकर ने जब अपना शैक्षिक अध्ययन समाप्त किया तो रुचि जगी कि वह साधु बनकर संसार की वास्तविकता का ज्ञान अर्जित करे और साथ ही साथ स्वयं को भी पहचाने कि जीवन का लक्ष्य क्या है। मां ने नाना प्रकार के जटिल प्रश्न जब भी वह पूछता तो माता का भयभीत होना स्वाभाविक था क्योंकि वही उसकी आंखों का तारा था। इस छोटी सी उम्र में संसार से विमुख हो संन्यासी बनने के सपने देखना जब मां को संदेहास्पद लगा तो उन्होंने चाहा कि शंकर का विवाह कर उसे बंधनों में जकड़ दिया जाए, पर शंकर न माना।
मां नित्य नदी में स्नान करने के पश्चात ही धर के अन्य कार्यों में हाथ लगाती इसलिए शंकर को भी गंगा स्नान करने का सौभाग्य प्रतिदिन प्राप्त हो जाता। एक दिन मां जब स्नान के पश्चात नदी के घाट पर अपने कपड़े बदल रही थी तो शंकर की चीतकार उनके कानों में पड़ी। उन्होंने देखा कि एक भयानक मगर ने शंकर की टांग जकड़ ली है। बालक और घड़ियाल के बीच भीषण संघर्ष का स्वर सुन अन्य लोग भी दौड़े चले आए। घड़ियाल की पकड़ से शंकर जैसे ही मुक्त हुआ मां ने उसे अपनी गोद में भरकर रोना शुरू कर दिया। सभी लोग बोले, शंकर का दूसर जन्म हुा है, तुम्हारा किसी जन्म का पुण्य काम आ गया मां जी।
सांत्वना के स्वर में उस दिन घर पर मां को समझाते हुए शंकर बोले, मां अपने बेटे को अब तो संन्यासी बन जाने की आज्ञा दे दे। समझती क्यों नहीं, तेरे शंकर को मगर खा जाता तो क्या करती। मां ने शंकर े यह वचन लिया कि उनकी मृत्यु के समय वह उनके पास उपस्थित रहेंगे और उन्हें सन्यासी बनने की आज्ञा दे दी। इसके बाद शंकर श्रेष्ठ गुरु की खोज में त्याग कर उत्तर दिशा की ओर चले गेय और घने जंगलों, ऊंचे पहाड़ों और गहरी नदियों को लांघते हुए नर्मदा के किनारे आंेकारेश्वर की एक गुफा में बैठे मुनि गोविन्दाचार्य के चरणों में बैठकर उनसे दीक्षित होने का मन बना लिया। उनसे दीक्षा लेने के बाद शंकर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए काशी चले गये। इसके बाद हरिद्वार में उन्होंने व्यासाश्रम में चार वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद 16 प्रसिद्ध ग्रंथों की भाष्य रचना की जिनमें ब्रह्मसूत्र, द्वादश, उपनषिद, भगवतगीता, विष्णु सहस्र नाम और सनत्सुजातीय आदि उल्लेखनीय है। उन्होंने लोगों को पंच देवता की पूजा और पंच महायज्ञों के अनुष्ठान के लिए प्रेरित किया।
शंकराचार्य जी का कहना था कि मोक्ष के लिए ज्ञान साधना आवश्यक है। उन्होंने सहज सिद्धि पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हमारी साधना ऐसी होनी चाहिए जिससे चित क्षुब्ध न हो। चित्त की सबका बीज रूप है क्योंकि भय और निर्वाण उसी से उपजते हैं। चित्त स्वभावतः शुद्ध होता है किंतु वह बंधन पाकर दौड़ता है और मुक्त होकर ही स्थिर रह सकता है। इस महान पथ प्रदर्शक ने 32 वर्ष की आयु में कैलाश में समाधि ले ली। (हिफी)

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