अध्यात्म

भए प्रगट कृपाला दीन दयाला…

 

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवान राम का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन दोपहर 12 बजे हुआ था। इस बार रामनवमी 10 अप्रैल को पड़ रही है। सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र ‘भगवान राम’ का जन्म, भूमण्डल में जन्म नहीं अवतार माना गया है। तुलसीदास ने लिखा है-भये प्रगट कृपाला दीन दयाला…। अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना करने वाले भगवान राम का -जम्मोत्सव’ और नवरात्र में शक्ति की प्रतीक माँ दुर्गा का धर्मोत्सव के साथ ही चैत्रमास के शुरू होते ही नव विक्रम संतव् 2067 भी शुरू हो रहा है।
सृष्टि के विस्तार के लिए स्वयंभू ब्रह्माजी ने अपने शरीर को दो भागों में बांटा दाहिने भाग से मनु प्रकट हुए और बाएं भाग से शतरूपा का प्राकट्य हुआ। हम सभी इन्हीं मनु की संतान होने से मनुष्य, मानव या मनुज भी कहलाते हैं। ये दोनों पति-पत्नी बड़े सदाचारी, धार्मिक, शीलवान तथा सात्विक गुणों से सम्पन्न थे। मनु ने दीर्घकालीन सप्तद्वीपा वसुमती का का राज्य संभाला। वृद्धावस्था में ये शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिय तीर्थ श्रेष्ठ तपोभूमि नैमिषारण्य में चले गये। वहां इन दोनों ने एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे दीर्घकाल तक तपस्या की। इस दम्पत्ति के मन में भगवान के समान पुत्र पाने की इच्छा थी। भक्तवत्सल भगवान आदिशक्ति श्री जानकी जी के साथ उनके सामने प्रकट हो गये। भगवान की ऐश्वर्य, माधुर्य एवं सौन्दर्यमयी छवि को देखकर मनु-शतरूपा आनन्द के सागर में डूब गये। भगवान ने उनका स्पर्श किया और वर मांगने को कहा। मनु बोले नाथ! आज आपके चरण कमलों का दर्शन करके हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो गयी हं फिर भी हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमें अपने समान पुत्र प्राप्त करने का वर प्रदान करें। भगवान बड़ी प्रीति से बोले-राजन! ऐसा ही होगा। मैं अपने समान दूसरा कहा खोजूं, अतः स्वयं आकर ही आपका पुत्र बनूंगा। अब आप देवराज इन्द्र की राजधानी अमरावती में निवास करें। कुछ समय बाद जब आप अयोध्या के राजा दशरथ होंगे, तब मैं अपने अंशों सहित आपका पुत्र बनूंगा। ऐसा वर प्रदान कर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
सरयू के पावन तट पर स्थित अयोध्यापुरी प्राचीनकाल से सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रही है। उस समय अयोध्या में राजर्षि दशरथ का राज्य था। उनकी तीन रानियां थीं-कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी। वे तीनों ही बड़ी पतिव्रता थीं। धीरे-धीरे समय बीतता गया, महाराज दशरथ लगभग बूढ़े हो चले थे, किंतु उनके कोई पुत्र नहीं हुआ। संतान की लालसा से वे हर समय चिन्तित रहा करते। एक दिन उन्होंने कुलगुरू महर्षि वशिष्ठ से संतान-प्राप्ति का उपाय पूछा। वशिष्ठ जी ने कहा-‘राजन! सच्चे हृदय से भगवान से जो प्रार्थना की जाती है, भगवान उसे अवश्य सुनते हैं। अतः तुम यज्ञ द्वारा भगवान की आराधना करो। समय आने पर तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध होंगे।
राजा दशरथ ने बड़े ही हर्ष एवं समारोह के साथ ‘पुत्रकामेष्टि’ नामक यज्ञ का आयोजन किया और श्रृंगी ऋषि ने उसे सम्पन्न कराया। जब यज्ञ पूर्ण हुआ जब पूर्णाहूति के समय यज्ञकुण्ड में से मनुष्य का रूप धारणकर भगवान अग्निदेव प्रकट हुए। उनके हाथ में चरु (हविष्यान्न-पायस-खीर) का पात्र था। उन्होंने प्रसाद के रूप में वह चरु महाराज दशरथ को प्रदान किया और कहा-महाराज! यह दिव्य चरु अपनी रानियों को बांट दीजिए, इससे रानियों को पुत्र होंगे।’ खीर देकर अग्निदेव फिर अग्निकुण्ड में अदृश्य हो गये।
भगवान अग्निदेव की कृपा से चरु-रूप प्रसाद पाकर महाराज दशरथ ने अपनी तीनांे रानियों को बुलाया और खीर ग्रहण करने को कहा। तीनों रानियों ने प्रसाद रूप में वह खीर ग्रहण की।
भगवान किसी के गर्भ से जन्म नहीं लेते, परंतु लीला ऐसी करते हैं जिससे मालूम पड़ता है बालक ने जन्म लिया है। कुछ समय बाद भगवान के प्रकट होने का शुभ दिन आ गया। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ठीक दोपहर के समय भगवान शंख, चक्र, गदा तथा पदम धारण किये चतुर्भुज रूप में माता कौसल्या के सामने प्रकट हो गये। भगवान के शरीर के दिव्य प्रकाश से पूरा महल जगमगा उठा। यह देख कौसल्या ने प्रार्थना की-भगवन् यदि आप मेरे पुत्र-रूप में प्रकट हुए हैं तो अपना यह चतुर्भुज-रूप छिपा लीतजये और बच्चे बन जाइये, जिससे मुझे आपको पुत्र के रूप में पाने का सुख मिल सके।’ माता के ऐसा कहते ही भगवान नन्हें से शिशु बनकर माता की गोद में आ गये और रुदन करने लगे।
दूसरे दिन दशमी को छोटी रानी कैकेयी को एक पुत्र तथा फिर सुमित्रा जी को अत्यंत सुन्दर दो जुड़वे पुत्र प्राप्त हुए। इस प्रकार महाराज दशरथ् जी को चार पुत्र प्राप्त हो गये। वशिष्ठ मुनि ने विधिपूर्वक चारों बालकों के जातकर्म, षष्ठी महोत्सव तथा नामकरण आदि संस्कार करवाये। कौशल्या के लाला का नाम राम, कैकेयी के पुत्र का नाम भरत और सुमित्रा के कुमारों का नाम लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न रखा गया।
बालरूप भगवान श्रीराम ने माता को आनन्द पहुंचाने के लिये ठीक वैसी ही लीलाएं प्रारंभ कर दीं, जैसे एक सामान्य बच्चा करता है। वे कभी रो पड़ते, कभी इधर-उधर हाथ-पांव मारते, कभी माता के माथे लगी बिंदिया को छूने का प्रयास करते और कभी मधुर-मधुर मुस्कान बिखेरते और फिर पल भर में उदास से हो जाते। यह देखकर माता को बहुत ही ानन्द होता। वे लाड़-व्यार में कभी उनका मुंह चूमती, कभी हृदय से लगा लेतीं, कभी पलंग पर उनको लेकर सो जातीं और कभी उनके अनन्त सौंदर्य माधुर्यमयी छवि को देखकर बस निहारती ही रह जातीं। अपने दुलारे श्रीराम के प्रेम रस में डूबी कौसल्या जी रात-दिन का बीतना भी नहीं जान पाती थीं। साक्षात नारायण रूप श्रीराम ही शिशु रूप में माता कौसल्या पर कृपा दृष्टि बरसा रहे हैं, इससे बड़ा सौभाग्य एवं परम सुख और क्या हो ही सकता है।
श्रीराम सभी माताओं को अत्यंत प्रिय लगते थे। माता कौसल्या तो उनके प्रेम में बावरी-सी रहतीं क्यों न हों, वे उन्हीं के लाल जो ठहरे। माता कौसल्या ने अपने चारों लाड़लों के लिए अलग-अलग चार सुन्दर पालने बनवा लिये थे। अब तो चारों भाई अपने-अपने पालने में शोभा पाते हैं। जैसे रामजी सुन्दर हैं वैसे ही उनका पालना भी बहुत ही सुन्दर है। उसमें स्वर्ण और मोती-माणिक, हीरे-जवाहरात जड़े हैं, तरह-तरह के खिलौने, घुंघरू और मनोहर मोतियांे की मालाएं लटकी हुई हैं।
भगवान के चरणों में वज्र, अंकुश, ध्वज, कमल आदि मांगलिक चिन्ह हैं। जब वे किलकारी मारते हैं तो लाल-लाल होठों के मध्य सामने के शुभ्रवर्ण के दो दांतों की कान्ति को देखने के लिए देवगण भी तरस उठते हैं। यह सौभाग्य तो माता को ही सुलभ था।
बालरूप भगवान श्रीराम के छोटे चरण हैं, उनमें नन्हीं-नन्हीं छबीली अंगुलियां हैं, रमणीय आंगन में खेलते समय जब ठुमक-ठुमक चलते हैं तो पैरों से पैजनियों का सुमधुर झुनझुन-झुनझुन शब्द होता है। कमर में सुवर्ण की मणि जटित मनोहर किंकिणी है तथा हाथों में अति सुंदर पहुंचयां हैं। उनके सांवरे शरीर पर अति झीनी पीत वर्ण झंगुलिया शोभित है, छाती पर व्याघ्रनख है, कण्ठ में कठुला पड़ा हुआ है, उनकी चितवन चित्त को चुराये लेती है। अतुलनीय ही नहीं अवर्णनीय है। रामनवमी के दिन
समस्त भूमण्डल में राम की पूजा-अर्चना करके सभी राम का जन्मोत्सव मनाते हैं। (हिफी)

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