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इन्द्रियों के स्वामी को कहते हैं हृषीकेश

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

इन्द्रियों के स्वामी को कहते हैं हृषीकेश

प्रश्न-पाण्डव सेना को भीम के द्वारा रक्षित और पर्याप्त बतलाकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-इससे दुर्योधन ने उसकी न्यूनता सिद्ध की है। उनका कहना है कि जहाँ हमारी सेना के संरक्षक भीष्म हैं, वहाँ उनकी सेना का संरक्षक भीम है, जो शरीर से बड़ा बलवान होने पर भी भीष्म की तो तुलना में ही नहीं रक्खा जा सकता। कहाँ रणकला-कुशल शस्त्र-शास्त्रनिपुण, परम बुद्धिमान् भीष्मपितामह और कहाँ धनुर्विद्या में अकुशल, मोटी बुद्धि का भीम है! इसीलिए उसकी सेना पर्याप्त-सीमित शक्तिशाली है, उस पर लोग सहज ही विजय प्राप्त कर सकते हैं।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थितः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।। 11।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-पितामह भीष्म अपनी रक्षा करने में सर्वथा समर्थ हैं, यह बात दुर्योधन भी जानते थे। परन्तु भीष्म जी ने पहले ही यह कह दिया था कि ‘द्रुपद पुत्र शिखण्डी पहले स्त्री था, पीछे से पुरुष हुआ है; स्त्री रूप में जन्म होने के कारण मैं उसे अब भी स्त्री ही मानता हूँ। स्त्री-जाति पर वीर पुरुष शस्त्र प्रहार नहीं करते, इसलिये वह सामने आ जायगा तो मैं उस पर शस्त्र प्रहार नहीं करूँगा।’ इसीलिये सारी सेना के एकत्र हो जाने पर दुर्योधन ने पहले भी सब योद्धाओं सहित दुःशासन को सावधान करते हुए विस्तारपूर्वक यह बात समझायी थी। यहाँ भी उसी भय की सम्भावना से दुर्योधन अपने पक्ष के सभी प्रमुख महारथियों से अनुरोध कर रहे हैं कि आप लोग जो जिस व्यूहद्वार-मोर्चे पर नियुक्त हैं, सभी अपने-अपने स्थान पर दृढ़ता के साथ डटे रहें और पूरी सावधानी रक्खें जिससे किसी भी व्यूहद्वार से शिखण्डी अपनी सेना में प्रविष्ट होकर भीष्मपितामह के पास न पहुँच जाय। सामने आते ही, उसी समय शिखण्डी को मार भगाने के लिये आप सभी महारथी प्रस्तुत रहें। यदि आप लोग शिखण्डी से भीष्म को बचा सके तो फिर हमें किसी प्रकार का भय नहीं है। अन्यान्य महारथियों को पराजित करना तो भीष्मजी के लिये बड़ी आसान बात है।
तस्य संजनयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शडंख
दध्मौ प्रतापवान्।। 12।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-भीष्मपितामह कुरुकुल में बाह्ीक को छोड़कर सबसे बड़े थे, कौरवों और पाण्डवों से इनका एक सा समबन्ध था और पितामह के नाते ये दोनों के ही पूज्य थे; इसीलिए संजय ने इनको कौरवों में वृद्ध और पितामह कहा है। अवस्था में बहुत वृद्ध होने पर भी तेज, बल, पराक्रम, वीरता और क्षमता में ये अच्छे-अच्छे वीर युवकों से भी बढ़कर थे; इसी से इन्हें ‘प्रतापवान्’ बतलाया है। ऐसे पितामह भीष्म ने जब द्रोणाचार्य के पास खड़े हुए दुर्योधन को, पाण्डव-सेना देखकर, चकित और चिन्तित देखा; साथ ही यह भी देखा कि वे अपनी चिन्ता को दबाकर योद्धाओं का
उत्साह बढ़ाने के लिये अपनी सेना की प्रशंसा कर रहे हैं और द्रोणाचार्य आदि सब महारथियों को मेरी रक्षा करने
के लिये अनुरोध कर रहे हैं; तब पितामह ने अपना प्रभाव दिखलाकर उन्हें
प्रसन्न करने और प्रधान सेनापति
की हैसियत से समस्त सेना में युद्धारम्भ की घोषणा करने के लिये सिंह के समान दहाड़ मारकर बड़े जोर से शंख बजाया।
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।। 13।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-भीष्मपितामह ने जब सिंह की तरह गरजकर और शंख बजाकर युद्धारम्भ की घोषणा कर दी, तब सब ओर उत्साह फैल गया और समस्त सेना में सब ओर से विभिन्न सेनानायकों के शंख और भाँति-भाँति के युद्ध के बाजे एक ही साथ बज उठे। उनके एक ही साथ बजने से इतना भयानक शब्द हुआ कि सारा आकाश उस शब्द से गूँज उठा।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।। 14।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन का रथ बहुत ही विशाल और उत्तम था। वह सोने से मंढ़ा हुआ बड़ा ही तेजोमय, अत्यन्त प्रकाशयुक्त, खूब मजबूत, बहुत बड़ा और परम सुन्दर था। उस पर अनेकों पताकाएँ फहरा रही थीं, पताकाओं में घुँघरू लगे थे। बड़े ही दृढ़ और विशाल पहिये थे। ऊँची ध्वजा बिजली-सी चमक रही थी, उसमें चन्द्रमा और तारों के चिन्ह थे; और उस पर श्रीहनुमान् जी विराजमान थे। ध्वजा के सम्बन्ध में संजय ने दुर्योधन को बतलाया था कि ‘वह तिरछे और ऊपर सब ओर एक योजन तक फहराया करती है। जैसे आकाश में इन्द्रधनुष अनेकों प्रकाशयुक्त विचित्र रंगों का दीखता है, वैसे ही उस ध्वजा में रंग दीख पड़ते हैं। इतनी विशाल और फैली हुई होने पर भी न तो उसमें बोझ है और न ही वह कहीं रुकती या अटकती ही है। वृक्षों के झुंडों में वह निर्बाध चली जाती है, वृक्ष उसे छू नहीं पाते।’ चार बड़े सुन्दर, सुसज्जित, सुशिक्षित, बलवान् और तेजी से चलने वाले सफेद दिव्य घोड़े उस रथ में जुते हुए थे। यह चित्ररथ गन्धर्व के दिये हुए सौ दिव्य घोड़ों में से थे। इनमें से कितने भी क्यों न मारे जायँ ये संख्या में सौ-के-सौ बने रहते थे। कम न होते थे। और ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सब स्थानों में जा सकते थे। यही बात रथ के लिये भी थी। खाण्डव-वन दाह के सामय अग्निदेव ने प्रसन्न होकर यह रथ अर्जुन को दिया था। ऐसे महान् रथ पर विराजित भगवान् श्रीकृष्ण और बीरवर अर्जुन ने जब भीष्मपितामह सहित कौरव-सेना के द्वारा बजाये हुए शंखों और अन्याय रणवाधों की ध्वनि सुनी, तब इन्होंने भी युद्धारम्भ की घोषण करने के लिये अपने-अपने शंख बजाये। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के ये शंख साधारण नहीं थे; अत्यन्त विलक्षण, तेजोमय और अलौकिक थे। इसी से इनको दिव्य बतलाया गया है।
पान्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः।। 15।।
प्रश्न-भगवान् के ‘हृषीकेश’ नाम का क्या भाव है? और उनको ‘पान्चजन्य’ शंख किससे मिला था?
उत्तर-‘हृषीक’ इन्द्रियों का नाम है, उनके स्वामी को ‘हृषीकेश’ कहते हैं; तथा हर्ष, सुख और सुखमय ऐश्वर्य के निधान को ‘हृषीकेश’ कहते हैं। भगवान इन्द्रियों अधीश्वर भी हैं और हर्ष, सुख और परमैश्वर्य के निधान
भी, इसीलिए उनका एक नाम ‘हृषीकेश’ है। पश्वजननामक शंखरूपधारी
एक दैत्य को मारकर भगवान् ने उसे शंखरूप से स्वीकार किया था। इससे उस शंख का नाम ‘पाश्वजन्य’ हो गया। -क्रमशः (हिफी)

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