अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-1

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-1 के श्लोक 24 से 35 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोŸामम्।।24।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषंा च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरुनिति।।25।।
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।27।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
राजा से इतना कहकर, संजय ने आगे कहा-
राजा सुनिए-अर्जुन का यह भाषण सुनते ही भगवान् श्री कृष्ण ने रथ घुमाया और उसे दोनों सेनाओं के मध्य लाकर खड़ा कर दिया जहाँ भीष्म, द्रोण आदि अनेक राजा उपस्थित थे। अर्जुन उत्सुक होकर उस सेना की ओर देखने लगा। फिर बोला-देव जरा देखिए तो, ये तो सब हमारे ही गोत्रज और गुरुजन हैं। फिर अर्जुन ने अपने सभी बड़े, बन्धु, मामा आदि को देखा, अपने इष्ट मित्रों को तथा लड़कों को वहाँ देखा। उसी प्रकार अपने श्वसुर तथा निकट सम्बन्धियों को, नाती, पोतों को भी वहाँ देखा। जिन पर उपकार किया था और संकट के साथ उनकी रक्षा की थी वे तथा छोटे बड़े सभी उनके गोत्र वाले दोनों सेनाओं में युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं। अर्जुन ने यह सब देखा। वह व्याकुल हो उठा। उसके मन में गोत्रजों के प्रति करुणा उत्पन्न हो गई। इससे उसकी वीर प्रवृत्ति का अपमान होकर वह अपने अन्तःकरण को छोड़कर कहीं चली गई। अन्तःकरण में दया को स्थान दे देने के कारण अर्जुन का पुरुषार्थ नष्ट हो गया। अर्जुन को महामोह ने ग्रस लिया। इससे उसका स्वाभाविक धैर्य नष्ट हो गया। उसके हृदय में दया का स्रोत फूट पड़ा। वह अत्यधिक स्नेह के मोह में फँस गया और खेदयुक्त अन्तः करण से श्री कृष्ण से बातें करने लगा।

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्संु समुपस्थितम्।।28।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते।।29।।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्ताŸवक्चैव परिदह्यते।
न च शक्रोम्यवस्थातंु भ्रमतीव च मे मनः।।30।।
अर्जुन ने कहा-हे देव! मैंने यह सारी सेना समुदाय देखी। यहाँ तो सब मेरे ही गोत्र के लोग दिखाई दे रहे है। ये सब युद्ध करने के लिए तैयार खड़े हैं, यह ठीक है, लेकिन क्या इनके साथ युद्ध करना उचित होगा? इनके साथ युद्ध करने का विचार आते ही मेरी सुध बुध खो जाती है। मेरा मन और बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती। यह देखिए, मेरा सारा शरीर काँप रहा है। मुँह सूख रहा है और सारे गात्र शिथिल हो गए है। शरीर पर रोमांच हो आए है, शरीर व्यथित हो चला है, जिससे गांडीव धारण करने वाला हाथ ढीला पड़ गया हे। मेरा अन्तःकरण इष्ट मित्रों के मोह से इतना व्याप्त हो गया है कि गांडीव कब हाथ से छूट पड़ेगा, कहना कठिन है। मेरा अन्तःकरण जो वज्र से भी अधिक कठोर है, तथा किसी भी प्रतिकूल अवस्था की चिन्ता नहीं करता, वह सगे सम्बन्धियों के मोहपाश में जकड़ जाए, यह आश्चर्य की बात है। जिस अर्जुन ने युद्ध में शंकर को भी परास्त कर दिया था तथा निवात कवच नामक राक्षसां का विनाश किया था, उस अर्जुन को मोह ने एक क्षण में ग्रस कर लिया? भ्रमर किसी भी सूखी एवं कठोर लकड़ी में सहज ही छिद्र कर देता है किन्तु कमल की कोमल कली में फँस जाता है। वहाँ उसका प्राण जाने पर भी वह कमल की पंखुड़ियों में छिद्र करने की बात तक नहीं सोचता। उसी प्रकार सगे-सम्बन्धियों के प्रति होने वाला मोह कोमल होने पर भी तोड़ना कठिन है। संजय कहता है – राजा धृतराष्ट्र! यह मोह वास्तव में ईश्वर की माया है। साक्षात् ब्रह्मदेव भी इसे वश में नहीं कर सकते। इसलिए उसने अर्जुन को व्याकुल कर दिया। राजा सुनो! अपने सभी इष्ट मित्र तथा गोत्र के लोगों को वहाँ देखकर अर्जुन का युद्ध के सम्बन्ध में सारा अभिमान चूर-चूर हो गया। उस स्थान पर उसके मन में किस प्रकार करूणा का उद्भव हुआ, यह समझ में नहीं आता। फिर उसने श्री कृष्ण से कहा, देव! मुझे यहाँ रहने की इच्छा नहीं होती। इन सबको मारने की बात मन में आते ही, मेरा मन व्याकुल हो उठता है, और मुँह से शब्द नहीं निकलते।
निमिŸाानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।31।।
यदि इन कौरवों का मारना ही है तो मैं धर्मराज युधिष्ठिर को भी क्यों न मारूँ? क्या वे मेरे गोत्र वाले नहीं हैं? यह महापाप किए बिना मेरा कोई काम नहीं रुका पड़ा है। हे देव! अनेक प्रकार से विचार करने पर यही समझ में आता है कि युद्ध का परिणाम खराब ही होगा। हाँ! ऐसा अवश्य लगता है कि युद्ध को टालने से परिणाम कुछ अच्छा ही होगा।
न काड्क्षे विजयं कृष्णं न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।
येषामर्थे काड्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।33।।
आचार्यः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्रव्शुराः पौत्राः श्यालाः
सम्बन्धिनस्तथा।।34।।
इस प्रकार विजय प्राप्त करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है और ऐसा राज्य प्राप्त करने से भी क्या लाभ है? अर्जुन ने कहा-इन सबको मारकर राज्य का भोग करना तुच्छ है। इस राज्य का सुख छोड़कर कैसी भी दुःखद अवस्था क्यों न हो, हम उसे सहन कर लेंगे। इतना ही नहीं, इन भीष्म आदि लोगों के लिए हम अपने प्राण तक गँवाने को तैयार हैं लेकिन इनकी हत्या कर राजसुख भोगने का विचार कभी मेरे मन में स्वप्न में भी नहीं आ सकता। यदि मैं मन से भी इन गुरुओं के अहित का चिन्तन करूँ तो फिर हमारे जीने का क्या अर्थ होगा? और जीना भी किसके लिए है। कुल में जो पुत्र प्राप्ति की इच्छा की जाती है तो क्या वह इसलिए कि पुत्र अपने गोत्र वालों का संहार करे? अपने मन में उनके प्रति वज्र से भी अधिक कठोर भावना किस प्रकार लाऊँ? जहाँ तक हो सके, अपने हाथ से उनका भला ही करना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि हम जो कुछ सम्पादन करें, उसका वे उपयोग करें। इतना ही नहीं बल्कि हम उनके लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर कर दें। लेकिन कर्म की गति कितनी विलक्षण है कि हमारे सब गोत्र वाले हमारे साथ युद्ध करने को उद्यत दिखाई देते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि ये सब कौन हैं? देखिए, उधर वे भीष्म और द्रोण हैं। उनके हामरे ऊपर असंख्य तथा असाधारण उपकार हैं। यहाँ हमारे साले, ससुर, मामा और भाई तथा उसी प्रकार ये सब पुत्र, नाती तथा सम्बन्धी हैं। इधर देखिए, ये सब हमारे निकट सम्बन्धी हैं। इन्हें मारने की बात करना भी पाप है।

एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्रतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35।।
इसके विपरीत वे कुछ भी करें, हमें यहाँ मार भी डालें, तो भी हम उन्हें मारने की बात नहीं सोच सकते। त्रिभुवन का अखण्ड राज्य भी क्यों न मिले, लेकिन मैं उन्हें मारने का अनुचित कार्य नहीं करूँगा। हे कृष्ण! आज हम यदि अपने गोत्र वालों के वध का घोर कृत्य करें तो हमारे प्रति किसके मन में आदर भाव होगा? और तुम्हीं कहो श्री कृष्ण, क्या मैं तब सिर उठाकर तुम्हारा मुख देख सकूँगा? – क्रमशः(हिफी)

 

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