अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-2

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 1 से 5 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनःं।।1।।
फिर संजय ने राजा धृतराष्ट्र से कहा-महाराज सुनिए। अर्जुन वहाँ से शोक से विह्नल होकर रूदन करने लगा। वहाँ अपने सारे कुल के लोगों को देखकर उसके मन में विलक्षण मोह उत्पन्न हो गया और उसका अन्तःकरण इस प्रकार द्रवित हो उठा, जिस प्रकार जल में नमक घुलता है या हवा से बादल उड़ जाते हैं। वह इतना धैर्यवान था फिर भी उसका हृदय द्रवित हो उठा। अर्जुन ममता से व्याकुल होकर म्लान दिखाई देने लगा। उसे इस प्रकार व्यामोह से ग्रस्त हुए देखकर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा-

श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।2।।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! जरा सोचो कि क्या इस समय तुम्हें यह सब शोभा देता है? पहले इस बात पर विचार करो कि तुम कौन हो और यह क्या कर रहे हो? तुम्हें हुआ क्या है? तुममें किस बात की कमी हो गई हैं? क्या करना शेष रह गया है? और तुम्हें किस बात का दुःख हुआ है? तुम कभी भी अनुचित बातों की ओर ध्यान नहीं देते और न कभी धीरज खोते हो। तुम्हारा केवल नाम सुनकर ही असफलता कोसों दूर भाग जाती है। तुम वीरता की निधि हो, क्षत्रियों का मुकुटमणि हो। तुम्हारी वीरता का डंका सारे त्रिभुवन में बज रहा है। तुमने युद्ध में साक्षात् शंकर पर विजय प्राप्त की। साढ़े तीन करोड़ निवात कवच जैसे दैत्यों को जड़ से उखाड़ फेंका और चित्ररथ गन्धर्वों का सामना कर उनसे तुम्हारा यशगान गाने के लिए प्रवृत्त किया। हे अर्जुन ! तुम्हारे साथ तुलना करने से यह त्रैलोक्य भी छोटा मालूम होने लगता है। तुम्हारा पराक्रम इतना उच्चकोटि का है और आज तुम अपनी वीरों की वृत्ति छोड़कर सिर झुकाकर रो रहे हो? हे अर्जुन! तुम विचारवान हो, फिर भी करूणा के वश में तुम दीन बन जाते हो? लेकिन, हे अर्जुन! क्या कभी अँधेरा सूर्य को निगल पाया है? या कभी अमृत को मृत्यु आई है? क्या लकड़ी कभी अग्नि को निगल पाई है? कय बड़े भुजंग को कभी मेंढ़क निगल पाया है? अच्छा, यह बताओ कि क्या कभी गीदड़ ने सिंह के साथ लड़ाई की है? ऐसी विलक्षण बातें क्या कभी संभव हुई हैं? लेकिन तुमने आज उन सबको सच करके दिखा दिया है। इसलिए हे अर्जन! तुम इस मोह को अपने पास न आने दो। मन को सँभाल कर, उसे धीरज देकर, सावधान हो जाओ। यह पागलपन छोड़े। उठो, और हाथ में धनुष बाण ले लो। इस रणभूमि में तुम्हारी इस करुणा का क्या उपयोग है? अर्जुन! तुम तो ज्ञाता हो न? तो इस समय क्यों नहीं विचार करते। अरे, क्या युद्ध के समय दया उचित है? तुम्हारा आज का यह व्यवहार तुम्हारी आज तक संपादित की हुई कीर्ति का विनाश करने वाला है तथा परमार्थ को भी बिगाड़ने वाला है।

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतŸवय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोŸिाष्ठ परन्तप।।3।।
इसलिए हे अर्जुन! तुम शोक करना छोड़ दो।
धैर्य धारण करो और अपने सगे-सम्बन्धियों के बारे में दुःख न करो। तुम्हें इस तरह खेद करना शोभा नहीं देता। तुमने आज तक जो यश प्राप्त किया है, उसका इससे नाश हो जाएगा। इसलिए कम से कम अब तो तुम अपने हित का विचार करो। ये कौरव क्या आज ही तुम्हारे रिश्तेदार बन गए? क्या यह बात तुम्हें इससे पहले नहीं मालूम थी? या तुम इन्हें पहचानते नहीं थे? तो फिर अब व्यर्थ ही क्यों दुःखी हो रहे हो? क्या आज का युद्ध का प्रसंग तुम्हारे जीवन में अपूर्व अर्थात् नया है? अरे, तुम लोगों का परस्पर कलह नित्य का है। फिर आज ही यह क्या हो गया? यह मोह तुम्हें जाने कैसे उत्पन्न हो गया? लेकिन अर्जुन! तुमने यह बहुत बुरा काम किया है। अगर तुम इस मोह में फँस गए तो आज तक प्राप्त की हुई कीर्ति से तो तुम हाथ धो ही बैठोगे, साथ ही परमार्थ से भी तुम वंचित हो जाओगे। तुम्हारे अन्तःकरण की यह दुर्बलता इस समय तुम्हारे लिए कल्याणकारी सिद्ध नहीं होगी। यह दुर्बलता क्षत्रियों के लिए संग्राम में अधःपतन ही है। इस प्रकार दयालु भगवान् अपनी ओर से अर्जुन को समझाने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे। लेकिन इस पर अर्जुन ने क्या कहा जरा सुनिए –

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सड्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।4।।
हे देव! इतना सब कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं क्या कहना चाहता हूँ, उसें जरा सुनिए। इस युद्ध के बारे में पहले आप ही विचार कीजिए। यह युद्ध नहीं है बल्कि हमारे हाथों बहुत बड़ा पाप हो रहा है। इसमें प्रवृत्त होने पर बहुत बड़ी हानि होने वाली है, ऐसा दिखाई देता है। देखिए, माता-पिता की सेवा करना तथा सभी प्रकार से उनको सन्तुष्ट रखना यही हमारा धर्म है न। ऐसा होते हुए, उल्टे उनका अपने हाथों वध कैसे किया जाए? देवता तथा साधु संतों को प्रणाम करना चाहिए, हो सके तो उनकी पूजा करनी चाहिए, लेकिन यह सब छोड़कर अपने ही मुँह से उनकी निन्दा कैसे की जाए? उसी प्रकार हमारे ये गोत्रज एवं कुलगुरू हमारे लिए सदैव पूजनीय रहे हैं। उनमें से भीष्म तथा द्रोणाचार्यजी के लिए तो मेरा मन अत्यधिक व्याकुल हो रहा है। भगवन् जिनके लिए हम स्वप्न में भी शत्रुता का भाव नहीं ला सकते, उनकी हत्या कैसे कर सकते हैं? उससे अच्छा तो यह है कि हम स्वयं ही जीवित न रहें। हमने आज तक जिनसे यह विद्या प्राप्त की है, उसका उपयोग उन गुरूजनों पर ही करना क्या हमारा कर्तव्य है? मैं अर्जुन द्रोणाचार्यजी का शिष्य हूँ। उन्होंने ही मुझे धनुर्विद्या सिखाई। इस उपकार के प्रति आभार प्रकट करने के बजाय क्या मैं उनकी हत्या करूँ? अर्जुन ने कहा- जिनकी कृपा से मुझे वरदान प्राप्त हुए, उनसे ही मैं कृतघ्नता करूँ? क्या मैं भस्मासुर हूँ?

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भु´्जीय भोगान्
रूधिरप्रदिग्धान्।।5।।
भगवन्! सुना है समुद्र गंभीर है लेकिन इसके विपरीत वह भी क्षुब्ध दिखाई देता है लेकिन द्रोणाचार्यजी के मन में कभी भी क्षोभ होता हुआ नहीं देखा। आकाश अनन्त है, लेकिन उसको भी नापा जा सकता है, लेकिन द्रोणाचार्यजी का अन्तःकरण इतना गहरा है कि उसकी थाह पाना कठिन है। शायद अमृत में भी खटास आ जाए या काल की गति से वज्र भी टूट जाए लेकिन द्रोणाचार्यजी का प्रयास करने पर भी क्रोध में जाना कठिन है। द्रोणाचार्यजी तो दया की मूर्ति हैं। ये समस्त गुणों की खान एवं विद्या के असीम सागर हैं। हमारे प्रति उनके मन में अपार कृपा है। इनका संहार करने की बात किसके मन में आ सकती है। ऐसे लोगों को मारकर राजसुख भोगने की अभिलाषा, मेरे मन में प्राण जाने पर भी नहीं आ सकती। इससे भिक्षा माँगना अच्छा है या देश छोड़कर चले जाना, या गिरी कन्दराओं में जाकर रहना अच्छा है। लेकिन इनके ऊपर शस्त्र चलाने की बात न करें। अर्जुन की यह बात सुनकर श्री कृष्ण को अच्छा नहीं लगा। – क्रमशः (हिफी)

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