अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-2

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 17 से 30 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमयव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।
यह असारता ही भ्रान्ति है तथा सार ही नित्य है। जिससे इस त्रैलोक्य के आकार का विस्तार हुआ है वह हमेशा सर्वव्यापी तथा जन्म मृत्यु से परे हैं। उसका कभी विनाश नहीं होता।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18।।
य एनं वेŸिा हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19।।
हे अर्जुन! शरीर स्वभाव से ही नाशवान है इसलिए तू युद्ध कर। तुम शरीर पर दृष्टि रखकर कह रहे हो कि मैं मारने वाला हूँ तथा कौरव मरने वाले हैं लेकिन तुम्हें तŸवज्ञान समझ में नहीं आता। न तुम मारने वाले हो न ये मरने वाले हैं।

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।20।।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।21।।
जिस प्रकार स्वप्न के विषय स्वप्न में ही सत्य मालूम पड़ते हैं, लेकिन नींद खुलने पर उसमें से कुछ भी शेष नहीं रहता, उसी प्रकार यह सब माया है और तुम उसके व्यर्थ ही मोह में पड़े हुए हो। जिस प्रकार मनुष्य की छाया पर शस्त्र से प्रहार करने पर वह उसके शरीर में नहीं घुसता।
अथवा पानी से भरा बर्तन उलट देने से उसमें दिखने वाला सूर्य का प्रतिबिम्ब जेसे अदृश्य हो जाता है, लेकिन सूर्य का विनाश नहीं होता उसी प्रकार शरीर विनष्ट होने पर भी आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। इसलिए तुम जन्म और मृत्यु का भ्रम आत्मा पर न थोपो।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहाण्ति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः।।23।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।24।।
जिस प्रकार मनुष्य पुराना वस्त्र छोड़कर नया वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा एक शरीर का परित्याग कर दूसरे को धारण करती है। यह आत्मा जन्म-मरण से मुक्त तथा स्वतःसिद्ध है। वह उपाधि रहित तथा शुद्ध है इसलिए शस्त्रादि से भी इस पर आघात नहीं होता। यह प्रलय काल में जल में नहीं डूबती, अग्नि में भी यह नहीं जलती, उसी प्रकार वायु में भी इसे शुष्क करने की सामथ्र्य नहीं है। हे अर्जुन! यह नित्य, क्रियारहित तथा शाश्वत है, स्वयं प्रकाश एवं परिपूर्ण है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।25।।
यह बात न तर्क से बताई जा सकती है न इसको अनुमान से बताई जा सकती है। यह अनन्त और जीवमात्र में श्रेष्ठ है। यह निर्णुण, अनादि, विकाररहित, निराकार तथा वस्तुमात्र में विद्यमान है। वह सबमें व्याप्त है। इसे समझने पर तुम्हारा यह शोक अपने आप नष्ट हो जाएगा।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापित त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26।।
यदि तुम आत्मा को अविनाशी न मानकर विनाशशील मानते हो तो भी तुम्हें दुःखी होने का कोई कारण नहीं है। उत्पत्ति, स्थिति तथा लय इन तीनों अवस्थाओं में आत्मा अखण्ड तथा नित्य है। यह प्रवाह कभी नहीं टूटता। इसलिए तुम्हें
इनमें से किसी भी चीज के लिए शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रकृति का यह नियम अनादि काल से चला आ रहा है। समस्त प्राणीमात्र जन्म
और मृत्यु के अधीन है इसलिए तुम्हें किसी के
भी लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं हैं।
जन्म और मृत्यु अपरिहार्य है। इसे कोई रोक नहीं सकता।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृत्स्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27।।
जो जन्म लेता है उसका नाश होता है और जो नष्ट होता है वह पुनः जन्म लेता है। यह जन्म -मरण का चक्र पानी के रहट की तरह अखण्ड चलता रहता है। जिस प्रकार सूर्य का उदयास्त निरन्तर चलता रहता है उसी प्रकार जन्म और मरण अनिवार्य है। इसलिए तुम्हारे दुःख करने का कोई कारण नहीं दिखाई देता।

अव्यक्तादीनि भूतनि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवनां।।28।।
ये समस्त प्राणी उत्पत्ति से पूर्व निराकर थे तथा जन्म धारण करने के बाद आकर में आए। ये जब लय प्राप्त करते हैं तो अपनी पहले की
अव्यक्त स्थिति को ही प्राप्त होते हैं। यह
साकार जगत् माया से ही उत्पन्न हुआ है, ऐसा समझो। जो वास्तव में है ही नहीं, उसके लिए तुम क्यों रोते हो? जो अक्षय है उस ब्रह्म की ओर
ध्यान दो।

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।29।।
जिन साधकों का अन्तःकरण ब्रह्म को जानकर इस मायारूपी संसार को भूल जाता है। वे इसका गुणानुवाद करते-करते थक गए और अन्त में ब्रह्मभाव में विलीन हो गए। कुछ उसके स्वरूप का वर्णन सुनकर ही शान्त होकर देहाभिमान से मुक्त हो गए तो कोई अपने अनुभव से इस तत्व को जानकर उससे समरस हो जाते हैं जैसे नदियों का प्रवाह समुद्र में मिलता है। ऐसे पुरुष पुनः संसार में नहीं लौटते।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।30।।
हे अर्जुन, यह जान लो कि जो हर स्थान पर और सभी शरीरों मे विद्यमान है और प्रयत्न करने पर भी जिसका विनाश नहीं हो सकता, वह एक ही चैतन्य रूप है, जो विश्व की आत्मा है। इस चैतन्य के स्वभाव मात्र से ही सब उत्पन्न होते हैं तथा इनका विनाश होता है। अब तुम किस-किस के लिए शोक करोगे, बताओ। तुम्हारा यह शोक करना सभी दृष्टियों से अनुचित है।
(यहाँ तक कृष्ण ने अर्जुन को आत्म तत्व
का उपदेश दिया जो सांख्य (ज्ञान) का विषय
है किन्तु अर्जुन केवल धर्म की बातें कर रहा था। अतः कृष्ण उसे इसके बाद धर्म के रहस्य को
बताते हैं।) – क्रमशः (हिफी)

 

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