अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-2

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 31 से 39 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्छ्रेयाऽन्यत्क्षतियस्य न विद्यते।।31।।
हे अर्जुन! जो स्वधर्म नाम की वस्तु है, वह तो त्याज्य नहीं है। तुम्हारे मन में जो दया उत्पन्न हुई है वह इस युद्ध के समय अयोग्य हे। गाय का दूध उत्तम है किन्तु उसे नवज्वर के रोगी को दिया जाए तो वह विष के समान है। उसी प्रकार जो भी कोई, अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय का अथवा क्षत्रिय ब्राह्मण के कर्मों का आचरण करे तो उसके कल्याण का विनाश हो जाता है। जिसका आचरण करने से किसी भी काल में दोष नहीं होता, उस अपने क्षत्रिय धर्म की ओर ध्यान दो। जो स्वधर्म का आचरण करता है उसकी इच्छाएँ सहज ही पूर्ण हो जाती हैं। इसलिए क्षत्रियों के लिए संग्राम के अतिरिक्त कुछ भी योग्य नहीं है। मन में किसी प्रकार का कपट रखे बिना आमने-सामने खड़े होकर एक दूसरे पर प्रहार कर युद्ध करो।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32
अर्जुन! इस युद्ध में तो तुम्हारे प्रताप से साक्षात् स्वर्ग ही तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो गया है। जब क्षत्रिय बहुत अधिक पुण्य करता है,
तभी उसे ऐसा युद्ध करने का प्रसंग प्राप्त
होता है। जिस प्रकार किसी को राह चलते इच्छित फल प्रदान करने वाली चिन्तामणि मिल जाए उसी प्रकार यह युद्ध प्रसंग तुम्हें प्राप्त
हुआ है।

अथ चेŸवमिमं धम्र्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।33।।
इस युद्ध क्षेत्र में यदि तुम अपना शस्त्र रख दोगे तो पूर्वजों द्वारा अर्जित कीर्ति नष्ट कर दोगे। इतना ही नहीं, बल्कि तुम्हारी अपनी कीर्ति का भी नाश हो जाएगा और सारा संसार तुम्हारी निन्दा करेगा। अनेक दोष तुम्हारा पीछा करते हुए आएँगे। जिस प्रकार बिना पति की स्त्री जगह-जगह अपमानित होती है, उसी प्रकार स्वधर्म के बिना मनुष्य की अवस्था होती है। स्वधर्म हीन मनुष्य को महादोष घेरे रहते हैं।

अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।34।।
इसलिए यदि तुम प्राप्त क्षत्रिय धर्म का त्याग करोगे तो तुम्हें पाप लगेगा कल्पान्त तक अपयश का कलंक नहीं छूटेगा। यदि तुम वापस लौटे तो ये कौरव तुम्हें चारों ओर से घेरकर तुम पर बाणों की वर्षा करेंगे। यदि तुम बच भी गए तो ऐसा बचना मरने से भी खराब है।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।35।।
तुम यहाँ बड़ी शान से लड़ने के लिए आए थे। अगर वापस लौटने लगोगे तो क्या तुम्हारी दयालुता कौरवों को सच मालूम पड़ेगी?
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामथ्र्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।36।।
वे कहेंगे, अर्जुन भाग गया। हमारे भय से भाग गया। तुम पर इस तरह का आरोप लगना कय ठीक है? यह निरुपम तथा असीम कीर्ति को प्राप्त करने का सुअवसर अनायास ही तुम्हारे पास आया है। तुम्हारी कीर्ति की महिमा गंगाजल की तरह निर्मल तथा गहरी है। तुम्हारी ऐसी अद्भुत वीरता की महिमा सुनकर सारे कौरव अपने प्राणों से निराश ही बैठे हैं। सभी कौरव तुमसे भयभीत हैं। इसलिए अब अगर बिना युद्ध किए लौटोगे तो तुम्हारी महानता समाप्त होकर तुम्हारी हेठी होगी। यदि तुम भागना चाहो तो वे तुम्हें भागने नहीं देंगे और तुम्हें पकड़कर
तुम्हारा अपमान करेंगे। तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी निन्दा करेंगे। वे मर्मभेदी शब्द सुनने की अपेक्षा तुम वीरता से युद्ध क्यों नहीं करते? अगर तुम युद्ध में विजय प्राप्त करते हो तो पृथ्वी के राज्य का उपभोग करोगे।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुŸिाष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतन्श्चियः।।37।।
और यदि लड़ते-लड़ते तुम मर गए तो सहज ही स्वर्ग का सुख भोगोगे। इसलिए हे अर्जुन! इसके बारे में अधिक न सोचो। उठो और हाथ में धनुष लेकर शीघ्र युद्ध करो। देखो! यदि स्वधर्म का पालन करोगे तो जो भी दोष हैं, वे नष्ट हो जाएँगे। यह कल्पना तुम्हारे मन में कैसे आई कि इसमें पाप है? फल की आशा से स्वधर्म का आचरण करने से अवश्य दोष लगेगा। इसलिए हे अर्जुन! निष्काम होकर क्षात्र धर्म से युद्ध करो, जिससे पाप का जरा भी अंश तुम्हें नहीं लगेगा।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।38।।
सुख प्राप्त होने पर उससे संतुष्ट नहीं होना चाहिए और दुःख प्राप्त होने पर दुःखी भी नहीं होना चाहिए। मन में लाभ और हानि का विचार भी नहीं आना चाहिए। इस समरभूमि में विजय प्राप्त होगी या मृत्यु आएगी, इसका पहले से ही विचार नहीं करना चाहिए। हमें अपने निर्धारित स्वधर्म का आचरण करना चाहिए। इस ढंग से मन में निश्चय हो जाने के बाद सहसा दोष नहीं आ पाते। इसलिए तुम निश्चय कर युद्ध का आरम्भ करो।

एषातेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।39।।
कृष्ण कहते है – यहाँ तक मैंने तुम्हें संक्षेप में ज्ञानयोग (सांख्य) बतलाया। अब मैं तुम्हें
बुद्धियोग समझता हूँ। हे अर्जुन! जिस पुरुष ने बुद्धियोग प्राप्त कर लिया है उसे कर्म का
बन्धन जरा भी बाधक नहीं होता जैसे शरीर पर वज्र कवच धारण करने पर शस्त्रों की वृष्टि सहन कर उसे विजय निश्चित रूप से प्राप्त होती है। – क्रमशः (हिफी)

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