
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 40 से 48 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वलपमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।
कर्म के आधार पर आचरण करना चाहिए, लेकिन फल की कामना नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार मंात्रिक को भूतबाधा का भय नहीं होता, उसी प्रकार फल की कामना किए बिना बुद्धि से कर्म करने की जिसे सद्बुद्धि प्राप्त हुई है, उसे जन्म – मरण की बाधा का कष्ट नहीं होता। जिस बुद्धि को पाप और पुण्य की बाधा नहीं हो पाती, वह नितान्त सूक्ष्म होती है तथा सत्व, रज और तम ये तीनों गुण उसमें प्रवेश नहीं कर पाते। अर्जुन! ऐसी सुबुद्धि जिस किसी को उसके पुण्य से प्राप्त होती है, वह सभी प्रकार के संसार भय को नष्ट करती है।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41।।
जिस प्रकार दीपक की ज्योति छोटी होने पर भी उसका प्रकाश बहुत बड़ा होता है, उसी प्रकार सद्बुद्धि छोटी होने पर भी उसे कम नहीं समझना चाहिए। हे अर्जुन! जो ज्ञानी हैं वे अनेक प्रकार से इसकी कामना करते हैं, किन्तु यह सद्बुद्धि दुनिया में दुर्लभ है। जिसकी परिणति ईश्वर प्राप्ति में ही होती है, ऐसी सद्बुद्धि नितान्त दुर्लभ है। ऐसी
बुद्धि दुनिया में केवल एक ही है। इसके अलावा बाकी सब दुर्बुद्धियाँ हैं। इसमें विकार उत्पन्न होते हैं, तथा अविचारी लोग उसमें रमते हैं। इसलिए हे अर्जुन! उन लोगों को स्वर्ग, संसार और नरक प्राप्त होते हैं, लेकिन आत्मसुख का कभी दर्शन नहीं होता।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44ं।
जो वेद का आधार लेकर कर्म-मार्ग की श्रेष्ठता स्थापित करते हैं, परन्तु उस कर्म के फल का लालच करते हैं, उनका यह कहना है कि मृत्युलोक में जन्म लेकर यज्ञ आदि का आचरण कर, आनन्ददायक स्वर्गसुख का भोग करें। हे अर्जुन! ये दुर्बुद्धि वाले हमेशा यही कहते हैं कि स्वर्ग जैसा सुख नहीं हैं। देखो, वे केवल भोग की इच्छा से आसक्त होने के कारण कर्मफल पर दृष्टि रखकर सकाम कर्म करते हैं तथा अनेक प्रकार के अनुष्ठान विधिपूर्वक कर, उसे अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए काफी दक्षता से धर्माचरण करते हैं। लेकिन हे अर्जुन! वे एक ही बात बहुत खराब करते हैं कि मन में स्वर्ग की इच्छा धारण करते हैं और जो यज्ञभोक्ता ईश्वर है, उसे ही भूल जाते हैं। जिस प्रकार कपूर का ढेर लगाकर उसमें आग लगा दी जाए अथवा मिष्ठान्न में जहर मिला दिया जाए, या सौभाग्य से प्राप्त अमृत कुंभ को पैर से लुढ़का दिया जाए, उसी प्रकार सम्पादन किया हुआ धर्म वे फलप्राप्ति की इच्छा से नष्ट कर देते हैं। जरा देखो! जब अत्यन्त परिश्रम से पुण्य सम्पादित किया है, तो फिर सांसारिक सुखों की इच्छा क्यों की जाए? लेकिन इन अज्ञानी लोगों की समझ में यही नहीं आता कि क्या किया जाए? अविचारी लोग सुखोपभोग के लिए धर्म को गँवाते हैं। इसलिए हे पार्थ! वेद के अर्थवाद में निमग्न लोगों के मन में दुर्बुद्धि ही वास करती है, यह याद रखो।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निद्र्वन्द्वो नित्यसŸवस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।45।।
तुम निश्चित रूप से यह जान लो कि वेद तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से भरे हुए हैं, इसलिए सभी उपनिषदों की सत्व गुणों में गणना की जाती है। हे धनुर्धर! शेष जिनमें कर्म, उपासना आदि का निरूपण किया गया है, वे सब रज और तम से युक्त हैं तथा केवल स्वर्गसूचक हैं। इसलिए तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि ये सब सुख-दुःख के कारण हैं, तथा इसके लिए तुम अपना मन उनमें न लगाओ। तुम इन त्रिगुणों को छोड़ दो और ‘मैं’’ आदि बातों को भुलाकर अन्तःकरण के आत्मसुख को न भूलो।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्यणस्य विजानतः।।46।।
वेदों में भले ही अनेक बातें कही गई हों, तथा अनेक मार्ग सुझाए गए हों, लेकिन उनमें से जो अपने लिए हितकारी है, उन्हें ही ग्रहण करना चाहिए। सूर्योदय होने के बाद अनेक रास्ते दिखाई देते हैं, लेकिन क्या उन सभी मार्गो पर मनुष्य चलता है, बताओ। या समस्त भूतल यदि जलमय हो जाए, तो भी हम उसमें से अपनी आवश्यकतानुसार ही जल लेते हैं। उसी प्रकार जो ज्ञानी है, वे वेदार्थ का विचार कर केवल अपेक्षित तथा शाश्वत ब्रह्मतत्व को ही स्वीकार करते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संड़ोऽस्त्वकर्मणि।।47।।
इसलिए हे पार्थ ! सुनो। इन सब बातों पर विचार करने के बाद तुम्हारे लिए स्वधर्म ही उचित है। हमने सारी बातों पर विचार करके देख लिया और हमारे मन में आया कि हमें अपना कर्तव्य कर्म नहीं छोड़ना चाहिए लेकिन कर्मफल की इच्छा न रखते हुए और निषिद्ध कर्मो को स्वीकार न कर केवल सत्कर्मों का ही निष्काम आचरण करना चाहिए। साथ ही तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
योगस्थः कुरु कर्माणि सडंग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।
हे अर्जुन! तुम योगयुक्त होकर, फल की इच्छा त्याग कर, मन लगाकर कर्म करो। लेकिन यदि प्रारम्भ किया हुआ कर्म दैवयोग से पूरा भी जाए तो उसमें सन्तोष न करो। या किसी भी कारण से वह कार्य सिद्ध न हुआ और अधूरा रह गया, तो भी उसके लिए मन में असन्तोष लाकर मस्त न हो जाओ। कर्म करते समय यदि वह पूरा हो जाए तो यह सचमुच उपायेगी सिद्ध हुआ, लेकिन यदि कोइ्र बाधा आकर वह अपूर्ण रहा तो भी यही समझो कि चलो, अच्छा ही हुआ। क्योंकि देखो जितना कर्म हो गया उसे ईश्वर को अर्पित कर देना चाहिए। और एक बात और अच्छे और बुरे दोनों की कर्मों में मन को एक सा रखो। यही योग स्थिति है। ऐसा उत्तम लोग कहते हैं। – क्रमशः (हिफी)