
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 49 से 60 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कुपणाः फलहेतवः।।49।।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।50।।
हे अर्जुन! मन की समता ही योग का सार है, ऐसा समझो। जिस समता में मन (क्रिया) तथा बुद्धि (ज्ञान) का सामंजस्य रहता है, उस बुद्धियोग के बारे में विचार करने पर यह कर्मयोग अनेक दृष्टियों से छोटा मालूम होता है लेकिन उस कर्म का आचरण करने से ही यह बुद्धियोग सिद्ध होता है क्योंकि कर्म की जो उत्तरावस्था है, वही स्वाभाविक योग स्थिति है। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है। और उसके प्रति ही तुम निश्चल रहो, लेकिन मन में फल प्राप्ति की आशा मत रखो। जिनकी बुद्धियेाग की ओर प्रवृत्ति होती है, वे तर जाते हैं, तथा पाप और पुण्य के बन्धन से छूट जाते हैं। ऐसा योग ही कर्म में कुशलता है।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।
अर्जुन! यदि उन्होंने कर्म किए भी हैं, तो भी वे कर्म के फलों की इच्छा नहीं रखते इसलिए उनके जन्म-मरण के झंझट समाप्त हो जाते है। हे
धनुर्धर! फिर, वे बुद्धियोगयुक्त होकर ब्रह्मानन्द से भरा हुआ अविनाशी पद प्राप्त करते है।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।
जब तुम स्वजनों के मोह का त्याग करोगे और तुम्हारे मन में वैराग्य का संचार होगा, तभी तुम बुद्धियोग युक्त हो जाओगे। उस योग से तुममें निर्दोष तथा गहन आत्मज्ञान उत्पन्न होगा और तुम्हारा अन्तःकरण सभी प्रकार से वासनारहित हो जाएगा। उस अवस्था में और अधिक ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा या पूर्व प्राप्त ज्ञान का स्मरण होना, यह सब रूक जाएगा।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53।।
इन्द्रियों की संगति से जो बुद्धि चंचल हो जाती है वह आत्म स्वरूप का लाभ होने पर स्थिर हो जाती है। जब तुम्हारी बुद्धि समाधि सुख में स्थिर हो जाएगी तभी तुम्हें सच्ची योग स्थिति प्राप्त होगी।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।54।।
तब अर्जुन ने पूछा-हे देव! अब मैं जिन-जिन बातों का खुलासा जानना चाहूं, उसे कृपया बताइए। जिसकी बुद्धि स्थिर है वह किसे कहा जाए और उसे कैसे पहचाना जाए? यह विस्तार से बताइए। उसे पहचानने के क्या लक्षण है? वह किस स्थिति में रहता है तथा किस रूप में व्यवहार करता है? यह कृपया बतलाइए।
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।55।।
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा-हे अर्जुन! सुनो। मन में जो तीव्र विषय वासना है, वही आत्मसुख में
बाधा डालती है। जो हमेशा तृप्त है और जिसका अन्तःकरण आत्मज्ञान से भरा हुआ है, लेकिन जिसके सहवास से पुरुष विषयासक्त होता है, उस काम की जिसके मन में पूर्ण निवृत्ति हो जाती है, जिसका मन आत्मसन्तोष में मग्न अर्थात् स्वानन्द में रमण करता रहता है, वही पुरुष स्थिर बुद्धि वाला है, ऐसा समझना चाहिए।
दुःखेष्वनुद्विग्रमनाः सुखेषु विगतस्पृह।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।56।।
अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होने पर भी जो दुःखी नहीं होता और जो सुख की इच्छा में
जकड़ा नहीं रहता, हे अर्जुन! उस सत्पुरुष के अन्तःकरण में काम, क्रोध सहज ही नष्ट हो जाते हैं और पूर्णत्व को प्राप्त उस पुरुष को भय का नाम भी नहीं मालूम होता। इस प्रकार संसार को छोड़कर जो भेद रहित रहता है, उसे ही स्थिर बुद्धि समझना चाहिए।
यः सर्वत्रानभिस्त्रेहस्तŸात्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।57।।
पूर्णिमा का चन्द्रमा जिस प्रकार अच्छे तथा बुरे लोगों को समान रूप से प्रकाश देता है, उसी प्रकार वह समान रूप से सबसे एक जैसा व्यवहार रखता है। जिस प्रकार अखण्ड ममता तथा समस्त प्राणियों के प्रति दया होते हुए जिसके चित्त की स्थिति कभी नहीं बदलती, कोई भी अच्छी चीज प्राप्त होने पर जिसे गर्व नहीं होता और खराब चीजों से दुःख नहीं होता, ऐसा जो हर्ष और शोक रहित होकर हमेशा आत्म चिन्तन में लीन रहता है, वही अर्जुन, स्थिर बुद्धि है ऐसा जानो।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽडंानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58।।
या, उस कछुए को देखो जो खुशी में किस प्रकार अपने हाथ-पैर फैलाता है, अथवा जब इच्छा होती है तब उसे सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार, जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं और उसकी इच्छा के अनुसार व्यवहार करते हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है, ऐसा समझो।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।59।।
हे अर्जुन ! तुम्हें एक और मजे की बात बताता हूँ, सुनो। जो साधक इन विषयों का नियम से त्याग कर देते हैं। कान, आँख आदि इन्द्रियों का दमन करते है लेकिन जिह्ना पर नियन्त्रण नहीं रख पाते, वे इन विषयों में अनेक प्रकार से जकड़ जाते हैं। जब साधक अपने स्वानुभव से परब्रह्म हो जाता है, तो रसना पर भी सहज ही नियन्त्रण हो सकता है। उस समय इन्द्रियाँ वासनाओं को भूल जाती हैं। उस समय आसक्ति का भी त्याग हो जाता है।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रिायणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।60।।
जो अपने चारों ओर अभ्यास तथा नियम-संयम की घेराबन्दी करता है और मन को हमेशा अपनी मुट्ठी में रखता है, उसे भी ये इन्द्रियाँ व्याकुल कर देती हैं, ऐसा इन इन्द्रियों का प्रताप है। इन इन्द्रियों की बड़ी शक्ति है।- क्रमशः (हिफी)