
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 61 से 72 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61।।
इसलिए हे पार्थ! सभी विषयों की इच्छा छोड़कर जो इन्द्रियों को अपने वश में रखता है और जिसका अन्तःकरण विषयों के सुख के अधीन नहीं हो जाता, वही योगनिष्ठा प्राप्त करने के योग्य है, ऐसा समझ लो। वह अन्तःकरण से मुझे कभी नहीं भूलता। मन में विषय की जरा भी इच्छा रह गई तो वह विवेक को नष्ट कर देता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62ं।।
क्रोधाभ्दवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।
अन्तःकरण में विषयों की केवल याद भी शेष रह जाए तो विरक्त के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा अर्थात काम उत्पन्न होता हे। जब काम में बाधा पड़ती है तो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध में अविचार रहता ही है। अविचार के कारण स्मृति अर्थात् आत्मज्ञान नष्ट हो जाता है। स्मृति का नाश होने पर उसकी बुद्धि अन्धी हो जाती है और उसकी समझ में कुछ नहीं आता जिससे ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसलिए हे अर्जुन! अन्तःकरण में विषयों का स्मरणमात्र होने से ही इतना बड़ा अनर्थ हो जाता है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।64।।
इसलिए मन से सभी विषय निकाल डालो जिससे राग, प्रीति और द्वेष अपने आप दूर हो जाएँगे। राग और द्वेष समाप्त हो जाने पर भी यदि इन्द्रिय विषयों में रममाण हो जाए, तो भी ये विषय बाधक नहीं होते। जो विषय के प्रति उदासीन, आत्मस्वरूप में निमग्न तथा काम क्रोध से आलिप्त रहता है उसे विषय
बाधा नहीं पहुँचा सकते। इस प्रकार जो स्वयं ही सर्वरूप होकर रहता है वही अचल प्रज्ञ स्थिर बुद्धि है। ऐसा समझ लो।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते।।65।।
अब यह देखो कि जहाँ मन की पूरी शन्ति है वहाँ इन सांसारिक दुःखों का प्रवेश नहीं होता। जिसके पेट में ही अमृत का सोता उत्पन्न हो गया है, उसे जिस प्रकार प्यास और भूख की पीड़ा नहीं होती, उसी प्रकार जिसका हृदय प्रसन्न है, उसे दुःख किस बात का होगा? और दुःख होगा भी कैसे? उसकी बुद्धि अपने आप परमात्म स्वरूप में लग जाती है। जिस प्रकार जहाँ वायु नहीं है वहाँ दीपक की ज्योति बिल्कुल नहीं हिलती, उसी प्रकार जो स्थिर बुद्धि है, वह आत्मस्वरूप समाधि में निश्चल होकर रत
रहता है।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।66।।
योग बुद्धि का यह विचार जिसके अन्तःकरण में नहीं है उसे विषयों के जाल अपने में फँसा लेते हैं। हे पार्थ! उसकी बुद्धि में कभी भी स्थिरता नहीं होती और उसे प्राप्त करने के लिए उसके मन में इच्छा भी नहीं होती। हे अर्जुन! जब उसके मन में स्थिरता की भावना उत्पन्न ही नहीं होती तो उसे शान्ति कैसे प्राप्त होगी? पापी की ओर जिस प्रकार मोक्ष झाँककर भी नहीं देखता, उसी प्रकार जहाँ शान्ति का अंश मात्र भी नहीं है, वहाँ सुख भूलकर भी नहीं जाता। देखो, यदि आग में बीच डालने से उसमें पौधे आ जाएँ, तभी शान्तिहीन मनुष्य को सुख की प्राप्ति हो सकेगी। इसलिए मन का नियन्त्रण न रखना ही दुःख का कारण है। इसलिए इन्द्रियों पर नियन्त्रण अवश्य करना चाहिए।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।67।।
जो पुरूष इन्द्रियों की इच्छा के अनुसार व्यवहार करता है, वे इस विषयरूपी सागर को पार कर गए हैं। ऐसा समझते हैं। लेकिन वे वास्तव में तरते नहीं है। जिस प्रकार कोई नाव किनारे के पास पहुँचते-पहुँचते तूफान आ जाने पर पुनः दुर्घटना में फँस जाते है, उसी प्रकार सिद्ध अर्थात् स्वरूपसिद्धि में पहुँचा हुआ पुरूष यदि कौतुहलवश भी इन्द्रियों का पोषण करता है तो वह सांसारिक दुःखों से घिर जाता है।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68।।
इसलिए हे धनंजय! अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो जाने पर इससे अधिक सार्थक बात और क्या है? अर्जुन! अब पूर्णावस्था को प्राप्त ज्ञानी को पहचानने की एक और पहचान तुम्हें बताता हूँ। सुनो।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।69।।
समस्त प्राणियों में, जिस आत्मस्वरूप के प्रति अज्ञान व्याप्त है, उसका जिसे ज्ञान है तथा जिस व्यावहारिक विषय की प्राप्ति के सम्बन्ध में समस्त प्राणिजन जागृत है, उस विषय सुख के सम्बन्ध में जो सोया हुआ है, वही हे अर्जुन! उपाधि रहित, स्थिर बुद्धि, गंभीर तथा मुनियों में अर्थात् मनन करनेवालों में श्रेष्ठ है, ऐसा समझो।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।70।।
हे पार्थ! उस स्थितप्रज्ञ पुरूष को पहचानने का एक और लक्षण है, उसे जान लो। समुद्र में जो निरन्तर शांन्ति तथा गंभीरता रहती है, वैसी ही शन्ति उस पुरूष में होती है। जिस प्रकार बरसात में नदियों का प्रवाह सागर में आकर मिलता है, फिर भी सागर नहीं बढ़ता और अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करता, ग्रीष्म ऋतु में सभी नदियों का पानी सूख जाता है, फिर भी समुद्र में जरा भी कमी नहीं आती, उसी प्रकार ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होने से वह पुरूष आनन्दित नहीं होता और प्राप्त न होने पर असंतुष्ठ भी नहीं होता, क्योंकि उसका अन्तःकरण महासुख में अर्थात परमात्मा के सुख में लीन रहता है। जिस पुरूष को स्वर्ग के सुख की परवाह नहीं है, उसके लिए ऋद्धि-सिऋि की क्या बात है?
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।71।।
इस प्रकार जो आत्मबोध से सन्तोष प्राप्त करता है, और परमानन्द में जीता है, वही सच्चा स्थिर बुद्धि है, ऐसा समझो। वह अहंकार छोड़कर, सभी विषयों को छोड़कर विश्वरूप होकर संसार में विचरता रहता है।
एषा ब्राह्यी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्यनिर्वाणमृच्छति।।72।।
जो निष्काम पुरूष असीम ब्रह्य स्थिति का अनुभव प्राप्त करते हैं, वे सहज ही आत्मस्वरूप प्राप्त कर लेते हैं। वह मृत्यु के समय होने वाली अन्तःकरण की विचलता स्थितप्रज्ञ के लिए बाधक नहीं हो सकती। संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं, राजा ! वही स्थिति भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।- क्रमशः (हिफी)