
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-2 के श्लोक 6 से 16 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
न चैतद्विह्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।6।।
मेरे मन में जो कुछ था, उसे मैंने आपको सविस्तार बता दिया। लेकिन उससे अधिक अच्छा क्या है? यह तो आप ही जानते हैं। इन्हें मारा जाए या छोड़कर कहीं चल दिया जाए, यही बात हमारी समझ में नहीं आती।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां
धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।7।।
हमें कौन सी बात करना उचित है, यह मेरी समझ में नहीं आता। तिमिररोग से जिस प्रकार नेत्र की ज्योति क्षीण हो जाती है और पास रखी हुई वस्तु भी नहीं दिखाई देती वैसी ही मेरी स्थिति हुई है। अपना हित किसमें है यह बात भी मेरी समझ में नहीं आ रही है। मेरे सब कुछ आप ही हैं तो जो बात उचित होते हुए धर्म के विरुद्ध न हो, उसे शीघ्र बताइए।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धंराज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।8।।
मेरे मन में जो शोक उत्पन्न हुआ है, वह आपके उपदेश के अतिरिक्त अन्य किसी भी उपाय से दूर होने वाला नहीं है। जहाँ आयु समाप्त हो गई है वहाँ सिवाय परमामृत के अन्य किसी औषधि का उपयोग नहीं होता। इसलिए हे कृपानिधि आपकी कृपा का प्रसाद ही उसमें उपयोगी सिद्ध होगा।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।9।।
इस प्रकार संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-वह अर्जुन इतना कहकर फिर कहने लगा कि निःसन्देह मैं इनसे युद्ध नहीं करूँगा। यह कहकर अर्जुन स्तब्ध रह गया। ऐसी स्थिति में उसे देखकर भगवान् को बड़ा आश्चर्य हुआ।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।10।।
भगवान मन ही मन कहने लगे इस समय अर्जुन के मन में यह सब क्या हो रहा है? इसका क्या उपाय है? किस उपाय से इसे समझ आएगी? क्या करने से इसे धैर्य प्राप्त होगा? कृष्ण इसका विचार करने लगे। फिर भगवान् सुनने में कठोर किन्तु परिणाम में हितकर वाणी से कहने लगे।
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।11।।
भगवान् कहने लगे-आज हम यह कैसे आश्चर्य की बात देख रहे हैं। तुम तो अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझते हो किन्तु अज्ञान को नहीं छोड़ते। क्या जन्म और मृत्यु तुमने ही बनाए हैं, इसलिए यदि तुम इनका विनाश करोंगे तभी ये मरेंगे, अन्यथा नहीं? यदि तुमने इनका विनाश नहीं किया तो क्या ये चिरंजीव हो जाएँगे? यह सब पहले से ही निश्चित है, अनादि सिद्ध है। सृष्टि के नियमों के अनुसार वह उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है। उसके लिए तुम दुःख क्यों कर रहे हो। ज्ञानी जन जन्म तथा मृत्यु दोनों के बारे में शोक नहीं करते।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।12।।
अर्जुन सुनो! तुम, मैं और ये सारे राजा जो यहाँ एकत्र हुए हैं, वे ऐसे ही रहेंगे या नष्ट हो जाएँगे, यह भ्रम यदि छोड़ दें तो यही मालूम होगा कि इनमें से एक भी बात सच नहीं है। क्योंकि जो उत्पत्ति विनाश दिखाई देता है, वह माया के कारण है। अन्यथा आत्मा तो सबकी एक है और वह अविनाशी है। जिस प्रकार हवा के चलने से पानी में तरंगें बन जाती है, फिर भी उसमें कौन कहाँ उत्पन्न होता है, यह कैसे बताया जा सकता है? और जब हवा का बहना बन्द हो जाता है तो पानी अपने स्वभाव के अनुसार शान्त हो जाता है, तब उसमें किस बीज का विनाश होता है, इसका जरा विचार करो।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।13।।
और यह देखो कि शरीर तो एक ही रहता है लेकिन उम्र के साथ उसमें अन्तर दिखाई देने लगता है। यह तो स्पष्ट प्रमाण है। उसी शरीर में बालपन भी दिखाई देता है, बाद में वही बालपन नष्ट होकर यौवनावस्था आ जाती है, लेकिन इन सबके साथ शरीर तो नष्ट नहीं होता। उसी प्रकार, यह देखो कि आत्मा के स्थान पर अनन्त शरीर उत्पन्न होते रहते हैं, और नष्ट हो जाते हैं किन्तु यह जानने वाले को मोह के कारण होने वाला दुःख नहीं होता।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।14।।
इन्द्रियों के वश में हो जाना, यही उस तŸव को समझ न पाने का कारण है। इन्द्रियाँ अन्तःकरण को विषयोन्मुख बनाती हैं, इसलिए वह भ्रम में पड़ जाता है। इन्द्रियाँ विषयों का सेवन करती हैं, इसलिए सुख और दुःख की उत्पत्ति होती है। इस आसक्ति के ही कारण ये विषय अन्तःकरण में मोह उत्पन्न करते हैं। ये विषय कभी निश्चित या एक से नहीं रहते। समय के अनुसार कभी सुख तो कभी दुःख का अनुभव होता है। यदि कान से निन्दा सुनी जाए तो द्वेष उत्पन्न होता है और स्तुति सुनी जाए तो समाधान होता हे। कोमल और कठोर का अनुभव स्पर्श इन्द्रिय त्वचा से होता है। भीषण और सुन्दर रूप विषय के लक्षण है। सुगन्ध और दुर्गन्ध का अनुभव नासिका से होता है। इसी प्रकार रसों का अनुभव जिह्ना से होता है। ये ही सुख और दुःखों का अनुभव कराते हैं। इसलिए विषय का संसर्ग ही मूल स्वरूप को भ्रष्ट करने का कारण है। इन्द्रियों की यही विशेषता है कि इन विषयों के अलावा उन्हें दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। इसलिए हे पार्थ! इनका साथ न कर, उसका त्याग करो।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।15।।
जो पुरुष इस विषय के अधीन नहीं होता, उसे सुख और दुःख दोनों ही प्राप्त नहीं होते और न उसे गर्भ-वास के ही संकट झेलने पड़ते हैं। जो इस विषय के अधीन नहीं होता, वही अविनाशी है।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्त त्वनयोस्तŸवदर्शिभिः।।16।।
हे अर्जुन! इस दुनिया में जो सर्वव्यापक एक गूढ़ आत्मचैतन्य है, उसी को तŸव-ज्ञानी सन्त ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार राजहंस पानी से दूध को अलग कर ग्रहण करता है, सुनार अशुद्धि को निकाल कर शुद्ध सोना प्राप्त कर लेता है, दूध को मथ कर अन्त में मक्खन प्राप्त किया जाता है, हवा में फटककर जिस प्रकार भूसे से अनाज को अलग किया जाता है, उसी प्रकार विचार करने पर यह प्रपंच समाप्त हो जाता है और तŸवज्ञान और ब्रह्य ही शेष रह जाता है। इसलिए वह इस अनित्य में आस्था नहीं रखता। जो नित्य है वहीं ‘सत्’ है और जो अनित्य है, वही ‘असत्’ है।- क्रमशः (हिफी)