अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-3

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-3 के श्लोक 7 से 19 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
जो अन्तर्यामी परमात्मा में लीन रहता है और बाहर से लोकाचार की तरह अन्य लोगों की तरह व्यवहार करता है और जिस समय जो कर्म करने हैं, उनसे नहीं चूकता, कर्मेन्द्रियों को अपने कर्म करने से नहीं रोकता, लेकिन उनके अधीन भी नहीं रहता। वह वासनाओं से आकर्षित नहीं होता, उनके मन में मोह की बाधा नहीं होती, वह कमल की भाँति निर्लिप्त रहकर सब प्रकार के लौकिक व्यवहार करता है ओर अन्य लोगों की तरह दिखाई देता है। ऐसे गुणों से जो युक्त है, जो विषयों से दूर है, वही योगी है, ऐसा समझो।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धîेदकर्मणः।।8।।
इसलिए संसार में कर्म रहित होना असंभव है। इसलिए समय के अनुसार जो उचित कर्म हो, उसे तुम निष्काम बुद्धि से करो। निष्काम बुद्धि से किया हुआ कर्म भी संसार से मुक्ति दिलाने वाला होता है।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।9।।
भैया मेरे! अपने धर्म के अनुसार आचरण करना, यही नित्य यज्ञ है ऐसा समझो। इसलिए उसके अनुसार आचरण करने से उसमें पाप तो लेशमात्र भी नहीं होता। स्वधर्म के अनुसार आचरण करना यही अखण्ड यज्ञ है। जो पुरुष यह यज्ञ करता है उसे किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता। यह सारी सृष्टि कर्मों से बँधी हुई है। जो स्वकर्म से चूक गया वही माया के पाश में बँध गया।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्यदेव ने कहा-स्वधर्मं का आचरण, यही तुम्हारा यज्ञ है यही एक तुम्हारे लिए योग्य है। तुम लोग यदि स्वधर्म का आचरण करोगे तो वह तुम्हें कामधेनु की तरह फल देगा और कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़गा।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
इस स्वधर्म के आचरण से सभी देवता संतुष्ट होंगे तथा तुम्हें इच्छित फल प्रदान करेंगे। जो तुम चाहोगे वह सिद्ध होगा।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभावितः।
तैर्दŸाानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्तै स्तेन एव सः।।12।।
भाइयों! अगर तुम निष्ठापूर्वक स्वधर्म का आचरण करोगे तो तुम ऐश्वर्य से सम्पन्न हो जाओगे और तुम्हारी कोई भी इच्छा शेष नहीं रहेगी। स्वधर्म का लोप होने पर सुख का आश्रयस्थान नष्ट हो गया, ऐसा समझो। जो स्वधर्म का त्याग करेगा, उसे कालयम दण्ड देगा और उसे चोर मानकर उससे सब कुछ छीन लेगा। इसलिए अपना स्वधर्म मत छोड़िए। ब्रह्मदेव कहते हैं- आप सब अपने-अपने उचित कर्म करने के लिए हमेशा तैयार रहें।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।13।।
जो विहित कर्मों का आचरण और पंचमहायज्ञ कर अग्नि में आहुति समर्पित कर जो कुछ बचा रहता है, उसका सुख से अपने परिवारजनों के साथ सेवन करता है, उसके सभी पाप इस यज्ञशेष के सेवन से ही नष्ट हो जाते हैं। स्वधर्म से प्राप्त किया हुआ धन स्वधर्म में ही खर्च करना चाहिए। जो पुरुष अपने शरीर को ही आत्मा मानते हैं, विषयों का सेवन ही योग्य वस्तु मानते हैं तथा जो खुद ही उसका सेवन करते हैं वे पापी होते हैं और पापों का ही सेवन करते हैं, यह जान लो।

अन्नाभ्द्रवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाभ्द्रवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुöवः।।14।।
कर्म ब्रह्योöवं विद्धि ब्रह्याक्षरसमुöवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्य नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।15।।
अन्न से ही प्राणीमात्र की उत्पत्ति होती है और पर्जन्य से अन्न उत्पन्न होता है। उस पर्जन्य की उत्पŸिा यज्ञ से तथा यज्ञ की कर्म से होती है। कर्म की उत्पŸिा वेद रूप ब्रह्मा से और उस वेद की उत्पत्ति परमात्मा से होती है। इसलिए यह सारा जगत् परमात्मा के अधीन है। कर्म की मूर्ति जो यज्ञ है उसमें वेदरूपी ब्रह्मा निरन्तर निवास करता है।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघयुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।16।।
इसलिए जो पुरुष इस स्वधर्मरूप यज्ञ का इस लोक में आचरण नहीं करता वह पापराशि धरती के लिए केवल भार स्वरूप है। उसके सभी जन्मों के कर्म निष्फल होते हैं। उसका जीवन बकरी के गले में लटके स्तन की तरह है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
देखो! जो पुरुष आत्मस्वरूप में लीन है, वह केवल देहकर्म के चलते रहने पर भी, कर्म में लिप्त नहीं होता। वह सहज ही कर्मसंग से मुक्त होता है।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
जिस प्रकार भोजन से तृप्त हो जाने पर उसके साधन भी अपने आप समाप्त हो जाते
हैं उसी प्रकार स्वरूपानन्द प्राप्त हो जाने के
बाद कर्म शेष नहीं रहता। हे अर्जुन! जब तक इस प्रकार का आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक इस साधन का आचरण करना पड़ता है।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
इसलिए सदैव फल की आशा छोड़कर तुम अपने उचित धर्म का आचरण करो। हे पार्थ! जिन्होंने इस दुनिया में स्वधर्म का आचरण निष्काम बुद्धि से किया है, उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया।- क्रमशः (हिफी)

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