अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-3

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-3 के श्लोक 32 से 43 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।32।।
अन्यथा देह के पाश में उलझकर तथा इन्द्रियों के चोंचले पूर्ण कर जो मेरे मन्त्रों का तिरस्कार कर उसे फेंक देते हैं, जो उसे साधारण समझ कर उनका मजाक उड़ाते हैं, या उन्हें कोरी बकवास समझते हैं, वे मोह रूपी मद्यपान कर भटके हुए, अज्ञानरूपी कीचड़़ में धंसे हुए हैं। जो मूर्ख हैं, उन्हें या विचार नहीं भाता। विषयाचरण करना भी आत्मघात है।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
इसलिए किसी विचारवान मनुष्य को इन्द्रिायों का लाड़ प्यार नहीं करना चाहिए। देखो! क्या साँप के साथ खेलना सम्भव है? क्या बाघ का सहवास इष्ट होगा? उसी प्रकार इन्द्रियों का लाड़ करना ठीक नहीं। धर्म का त्याग करके क्या देह का पोषण करना उचित है? फिर यह पंचतत्वों से बना शरीर अन्त में पंचतत्वों में ही मिल जाता है इसलिए केवल शरीर का पोषण करने में प्रत्यक्ष रूप से हानि ही है, ऐसा समझो।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेŸाौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
जिस प्रकार विष की फली खाने में पहले मीठी लगती है किन्तु उसका परिणाम नाशकारक ही होता है, उसी प्रकार इन्द्रियों में रहने वाला काम विषयसुख की दुराशा उत्पन्न करता है। इसलिए हे पार्थ! काम-क्रोध को घातक समझकर उनमें कभी आसक्ति मत रखो। और मन में उनका स्मरण भी न करो और आत्मज्ञान को न भुलाओ।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
हमारा धर्म यद्यपि आचरण की दृष्टि से कठिन है, फिर भी उसी का आचरण करना ठीक है।
दूसरे का धर्म देखने में भले ही अच्छा हो लेकिन लोगों को अपने ही धर्म का आचरण करना चाहिए। जो दूसरों के लिए उचित है, किन्तु अपने लिए अनुचित है, उसका सेवन नहीं करना चाहिए।
स्वधर्म का आचरण करते हुए, भले ही अपने प्राण चले जाएँ लेकिन उसे दोनों लोकों में श्रेष्ठ माना जाता है।

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरूषः।
अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
भगवन्! जो पाप से अलिप्त रहना चाहते हैं, और चाहते हैं कि उनके हाथ से कोई पाप न हो जाए लेकिन उन्हें अनुभव होता है कि कोई उन्हें जबर्दस्ती पाप की ओर धकेल रहा है। बचने का प्रयास करते हुए भी वे उसमें फँसते जाते हैं। बलात्कार करने का यह आग्रह किसका है, इसे कृपया बताइए।

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुन्द्रवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।37।।
भगवान ने कहा-सुनो! हृदय में वास करने वाले ये काम और क्रोध ही पुरुष को पाप की ओर प्रवृत्त करते हैं। इस काम और क्रोध में दया नाम की वस्तु नहीं है। इतना ही नहीं दूसरों का नाश करने के लिए इसके पास यमराज का सामथ्र्य है। ये रजोगुण से सम्पन्न मूलरूप से राक्षसी प्रवृति के हैं। इनको अविद्या से सन्तोष होता है। इन्होंने विवेक का स्थान नष्ट किया। इन्होंने सन्तोषरूपी वन को नष्ट किया है और आनन्दरूपी पौधा उखाड् फेंका। इन्होंने ज्ञानरूपी पौधे उखाड़ फेंके। ये पानी के बिना ही डुबा देते हैं, अग्नि के बगैर जलाते हैं और प्राणी को बगैर जानकारी ग्रस लेते हैं। ये शस्त्र के बिना ही मारते हैं। इनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
हे अर्जुन! जिस प्रकार जेर-गर्भ को चारों ओर से ढके रहता है, वैसे ही ज्ञान काम-क्रोध से सदैव आवृत रहता है। प्रभा के बिना सूर्य, धुएँ के बिना अग्नि और मैल के बिना दर्पण जैसे नहीं मिलता, उसी प्रकार काम-क्रोध रहित शुद्ध ज्ञान हमारे देखने में कभी नहीं आया।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
ज्ञान भले ही शुद्ध हो लेकिन वह काम-क्रोध से ढका रहता है। पहले काम-क्रोध पर विजय
पाओे, तभी ज्ञान प्राप्त होगा लेकिन पहले काम-क्रोध को जीतना कठिन है। जिस प्रकार आग बुझाने के लिए उसमें लकड़ी डालने पर वह उसी की
सहायता करती है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
तस्माŸवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
इसलिए जो भी उपाय करो वह सब उसके लिए लाभकारी सिद्ध होते हैं। हठयोगियों पर भी यही विजय प्राप्त करते हैं। ये काम और क्रोध अजेय हैं। इनसे पार पाने का एक उत्तम उपाय है। इनका मूल स्थान इन्द्रियों में होता है और इन्द्रियों से कर्म की प्रवृत्ति होती है। इसलिए पहले इन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
ऐसा करने से मन का वेग कम होगा, बुद्धि को छुटकारा मिलेगा और फिर वहाँ से उन दुष्टों का बसेरा टूट जाएगा।

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
इस प्रकार अन्तःकरण से इनकी बस्ती टूट जाने पर ये निश्चित रूप से मर गए, ऐसा समझो। जिस प्रकार सूर्य की किरणों के बिना मृगजल नहीं दिखाई पड़ेगा, उसी प्रकार राग और द्वेष का
अगर नाश हो गया, तो ब्रह्मप्राप्ति रूपी स्वराज्य
ही हाथ लग गया, ऐसा समझ लो। यही गुरु शिष्य की गोपनीय बात है, यही है जीव और ब्रह्म का मिलन। – क्रमशः (हिफी)

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