
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-3 के श्लोक 1 से 6 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अर्जुन कहते हैं – भगवान्! आपने जैसा कहा कि आत्मस्वरूप हो जाने पर कर्म और कर्ता का विचार नहीं रह जाता तो है ऋषिकेश! आप मुझे संग्राम करने के लिए क्यों कहते हैं? इस भयंकर कर्म में मुझे झोंकते हुए आपको संकोच क्यों नहीं हुआ? एक ओर तो आप सभी कर्मों का निषेध करते हैं, तो फिर मेरे हाथ से हिंसात्मक कर्म क्यों करवाते हैं?
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयाऽहमाप्नुयाम्।।2।।
भगवान्! जब आप ही ऐसी सन्देहयुक्त बातें करने लगे तो हम अज्ञानीजन क्या करेंगे? अज्ञान दूर करने के लिए यदि आप इस प्रकार का संदिग्ध उपदेश करें तो फिर भ्रम किसे कहा जाए? आप ही बताइए यदि वैद्य रोगी की हालत देखकर उसके पथ्य आदि की व्यवस्था करने के बाद उसकी औषधि में विष मिला दे तो वह कैसे जीवित रहेगा? जिस प्रकार किसी अन्धे को गलत रास्ता दिखाया जाए या बन्दर को मद्य पिला दिया जाए, उसी प्रकार आपका यह उपदेश तो हमारे लिए वैसा ही साबित होगा। हे भगवान्! मैं तो पहले ही अज्ञानी था, फिर मोहग्रस्त हो गया, इस कारण आपसे सद्विवेक का मार्ग पूछा। पर आपकी तो हर बात नई-नई और आश्चर्यजनक निकली। इस उपदेश से तो मुझे चारों तरफ भ्रम ही मालूम पड़ा। हे देव! शरणागत के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हो? हम मन, वचन तथा कर्म से आपकी बातों पर विश्वास करके चलते हैं और आप ही ऐसा करने लगे तो फिर सारा खेल खत्म ही समझिए। फिर वहाँ ज्ञान की आशा करना व्यर्थ है। इसलिए हे भगवान्। इस लोक में व्यवहार करने लायक तथा जिससे परलोक हितकारी हो, ऐसी निश्चित बात बताइए।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साड्ख्यानंा कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
अर्जुन की ये बातें सुनकर श्री कृष्ण ने आश्चर्य से कहा-हे अर्जुन! ज्ञानयोग और कर्मयोग मैंने ही बतलाए हैं। इस पृथ्वी पर ये दोनों ही सम्प्रदाय मेरे ही कारण प्रकट हुए हैं। जड़ और चेतन पर विचार करने वाले, जिसका आचरण करते हैं, तथा जिसके कारण ब्रह्मरूप का परिचय होते ही वे उसी में मिलकर एक हो जाते हैं, उस सम्प्रदाय को ज्ञानयोग कहते हैं तथा दूसरे को कर्मयोग कहते हैं। मार्ग तो ये दो हैं किन्तु स्वरूप एक ही जगह पहुँचते हैं। ये दोनों मत एक ही तŸव को दर्शाते हैं लेकिन इनकी उपासना उपासक की योग्यता पर निर्भर करती है। ज्ञानी तत्काल मोक्ष प्राप्त कर लेता है तथा कर्मयोगी वर्णाश्रम धर्म का पालन कर ज्ञानोŸार काल में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कम्र्यं पुरुषोऽश्नु।
न च सन्नयसनादेव सिद्धिं
समधिगच्छति।।4।।
विहित कर्मों को आरम्भ किए बिना कर्महीन पुरुष, किसी सिद्ध की तरह ज्ञाननिष्ठ नहीं हो सकता। हे अर्जुन! उसे जो विहित कर्म करने हैं, उसे छोड़ देने से वह कृतार्थ हो जाएगा, यह कहना केवल मूर्खता है। नदी पानी से लबालब भरी है और उस पार जाना है तो नाव का प्रायेग किए बिना कैसे जाएँगे। जब तक वासना नष्ट नहीं होती, तब तक परिश्रम करना ही होगा। आत्म सन्तोष प्राप्त होने पर परिश्रम अपने आप छूट जाएगा। इसलिए है पार्थ! जिसे परमात्म प्राप्ति की इच्छा है वह विहित कर्मों का आचरण कभी नहीं छोड़ सकता। और दूसरी बात यह है कि क्या हम अपनी इच्छा से कर्म का स्वीकार या त्याग कर सकते हैं?
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
जब तक माया का सहारा है, तब तक माया के सत्वादि गुणों के अधीन सारे कार्य चलते रहते हैं, इसलिए कर्म को स्वीकार करना अथवा त्याग करने की बात करना अज्ञानता का द्योतक है। विहित कर्मो का त्याग करने से क्या
कानों से सुनना बन्द कर दिया? या आँखों की दृष्टि चली गई या नाक के छेद बन्द होकर महक आना बन्द हो गई? या प्राणवायु की गति बन्द हो गई? या स्वप्न तथा जागृत अवस्था बन्द हो गई? इतना ही नहीं, क्या जन्म और मृत्यु का चक्र बन्द हो गया? तो जब इन्द्रियों का यह व्यापार बन्द नहीं होता तो फिर त्याग किस वस्तु का किया जाए? इसलिए जब तक माया का प्रभाव है तब तक कर्म त्याग कभी नहीं होगा। कर्म पराधीन अवस्था में प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। इसलिए मैं कर्म
करूँगा या छोड़ दूँगा यह कहना व्यर्थ है।
देखो! यदि कोई रथ में शान्त बैठा हो तो भी
वह सर्वथा रथ के अधीन ही रहता है।
क्योंकि रथ के हिलने डुलने से ही उसका हिलना डुलना हो जाता है। इसलिए जब तक माया का सम्बन्ध है, तब तक कर्म का त्याग नहीं हो सकता।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्वमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्चते।।6।।
जो पुरुष कर्मों का त्याग कर? कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर निष्कर्म होने का दंभ करते हैं, कर्म त्याग का फल नहीं मिलता क्योंकि उनके मन में कर्तव्य का विचार तो बना ही रहता है। ये प्राणीं हमेशा विषयासक्त रहते हैं।- क्रमशः (हिफी)