अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-4

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-4 के श्लोक 10 से 20 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता म˜ावमागताः।।10।।
जो गत और भविष्य की बातों पर शोक नहीं करते और वासना रहित रहते हैं वे किसी भी परिस्थिति में क्रोध के मार्ग पर नहीं चलते। जो हमेशा मेरे स्वरूप की प्राप्ति के कारण अपने को धन्य मानते हैं, और मेरी सेवा के लिए जीवित रहते हैं वे मेरे ही स्वरूप में आकर मिल जाते है। उनमें और मुझमें भिन्न भव नहीं रहता।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मुनष्याः पार्थ सर्वशः।।11।।
जिस भक्ति भाव से वे मुझे भजते हैं, उसी भाव से मैं भी उनसे प्रेम करता हूँ। मैं सर्व भूतमात्र से अभिन्न होते हुए भी मेरे प्रति भिन्नता की कल्पना करते हैं। मैं नाम रहित होते हुए भी मुझे अनेक नाम देते हैं। मै हर जगह व हमेशा एक सा हूँ।

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।12।।
फिर मन में अनेक उद्देश्य रखकर, अनेक देवताओं को मानकर उनकी उपासना करते हैं। इस उपासना से उन्हें जो इच्छित होता है वह सब उन्हें वैसे ही प्राप्त होता है। लेकिन यह सब उनके कर्म का ही फल है। देने वाला और लेने वाला कर्म के अलावा और कोई नहीं है। इस मनुष्य लोक में कर्म से ही फल की प्राप्ति होती है।

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धîकर्तारमव्य्यम्।।13।।
अब इस प्रकार से जो चार वर्ण है उन्हें भी गुण और कर्म के आधार पर मैंने ही उत्पन्न किया है, ऐसा समझो। और उन चारों वर्णों के कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृति तथा गुणों के अनुसार व्यवस्था सहज ही हो गई। गुण कर्म के अनुसार ही वर्णभेद की व्यवस्था हुई है। इसलिए इस वर्णभेद की व्यवस्था का कर्ता मैं नहीं हूँ।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।14।।
यह वर्णभेद यद्यपि मुझसे हुआ है लेकिन मैंने इसे नहीं किया है। यह बात जो जानता है वह कर्मातीत हो गया है।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्माŸवं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।15।।
हे अर्जुन! अब तक जो मुमुक्षुजन हो
गए हैं, उन्होंने इसी प्रकार मुझे जानकर सारे
कर्म किए। जिस प्रकार भुना हुआ बीज खेत में डालने पर नहीं जमता, उसी प्रकार उनके निष्काम कर्म ही उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लिए लाभप्रद सिद्ध हुए।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तŸो कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।16।।
जिस कर्म कहते हैं वह क्या है और अकर्म का क्या लक्षण है, इसका विचार करते-करते बुद्धिमान भी चक्कर में पड़ जाते हैं। जिस प्रकार खोटा सिक्का बिल्कुल खरे जैसा दिखता है इसलिए हमारी दृष्टि हमें सन्देह में डाल देती है, उसी प्रकार कर्माकर्म का विचार करते हुए बड़े-बड़े ज्ञानियों के होश उड़ जाते है फिर अज्ञानियों की तो बात ही क्या? इसलिए अब वही बात सुनाता हूँ।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।17।।
जिससे इस संसार की उत्पत्ति होती है, वह ही कर्म का लक्षण है। फिर जो कर्म वर्णाश्रम के योग्य तथा वेद में वर्णित है उसका भी अनुष्ठान प्रकार तथा फल आदि का परिचय कर लेना चाहिए। अब जिन कर्मों को निषिद्ध बताया गया है उन्हें भी अच्छी प्रकार जान लेना चाहिए। इससे पुरुष सहज ही उस कर्म में नहीं फँसता। कर्म का प्रभाव इतना व्यापक है कि वह पूरे संसारको अपने अधिकार में रख सकता है।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।18।।
फल की आशा न रखते हुए जो कर्म का आचरण करता है लेकिन वह कर्म मैं कर
रहा हूँ, ऐसा नहीं मानता तथा सारे कर्म लौकिक दृष्टि से करता है। वह सारे कर्म करते समय
यह जानता है कि कर्म-कर्ता मैं नहीं हूँ उसे परब्रह्म ही समझना चाहिए। वह विश्वरूप बन गया।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानान्गिदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं
बुधाः।।19।।
जिस पुरुष को कर्मों के आचरण के बारे में खेद नहीं होता तथा संकल्प भी उसके मन में नहीं होता क्योंकि उसने ज्ञानरूपी अग्नि में अपने सारे कर्म जला डाले हैं ऐसा वह पुरुष तो मनुष्य के रूप में साक्षात् परब्रह्म ही है।

त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृŸाोऽपि नैव किंचित्करोति सः।।20।।
जो अपने शरीर के प्रति उदासीन और कर्म से प्राप्त होने वाले फल के प्रति विरक्त होता है और जो हमेशा आनन्द स्वरूप में निमग्न रहता है, वह पुरुष हे पार्थ! आत्मबोध के पकवान का भोजन करते नहीं अघाता।- क्रमशः (हिफी)

 

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