
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-4 के श्लोक 21 से 32 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
निराशीर्यतचिŸाात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।21।।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न
निबध्यते।।22।।
जो आशा को छोड़ देता है और उसे अहंकार के साथ न्योछावर करके फेंक देता है और ब्रह्मसुख का आस्वाद लेता है, जिस समय जो भी मिले उसमें सुख मान लेता है। जिसे अपने वह दूसरे में कोई भेद नहीं दिखाई देता। संसार में देखने पर आत्मस्वरूप के अतिरिक्त जिसे और कुछ दिखाई नहीं देता, उसे किस कर्म से कैसी बाधा हो सकती है? जिसे ईष्र्या नहीं होती वह सभी प्रकार से मुक्त है। सारे कर्म करते रहने पर भी वह कर्म रहित है।
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।23।।
वह देहधारी होता है किन्तु विचारों में चैतन्य की तरह दिखाई देता है और ब्रह्म की कसौटी पर खरा और शुद्ध दिखाई देता है। यद्यपि वह मुक्त है फिर भी कभी-कभी विधिपूर्वक यज्ञादिक कर्मों का आचरण भी करता है लेकिन वे सम्पूर्ण कर्म यहीं विलीन हो जाते हैं।
ब्रह्यार्पणं ब्रह्य हविब्र्रह्यान्गौ ब्रह्यणा हुतम्।
ब्रह्यैव तेन गन्तव्यं ब्रह्यकर्म-
समाधिना।।24।।
इसलिए वह जो भी यज्ञ करता है, उनमें के होमद्रव्य तथा मन्त्र आत्मस्वरूप अथवा ब्रह्म स्वरूप ही हैं, ऐसा वह समझता है। इसलिए हे अर्जुन! ब्रह्म ही कर्म है, ऐसा सद्बुद्धि जिसके अन्तःकरण में है वह कर्म करता भी है तो भी वह नैष्कम्र्य ही है।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्यान्गावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्नति।।25।।
हे अर्जुन! जो गुरू वाक्यरूपी अग्नि में मन के साथ अज्ञान की आहुति देते रहते है उन्हीं को यह योगयज्ञ करना चाहिए तथा जिसे आत्मसुख की अभिलाषा हो उसी को यह यज्ञ करना चाहिए। इसी को ‘दैव यज्ञ’ कहते है।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमान्गिषु जुह्नति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियान्गिषु जुह्नति।।26।।
कोई आत्मसंयम रूपी अग्नि में होम करने वाले वे कायिक, वाचिक तथा मानसिक इन तीनों युक्ति मन्त्रों से पवित्र इन्द्रियरूप द्रव्य से हवन करते हैं।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगान्गौ जुह्नति ज्ञानदीपिते।।27।।
हे पार्थ! इस प्रकार सभी वृत्तियों को मिलाकर मन्थन करने से तत्काल कार्य सम्पन्न हुआ तो ज्ञानाग्नि प्रकट हो जाती है। कुछ लोग इस प्रकार यज्ञ करके त्रिभुवन से मुक्त हो गए। इसलिए ये क्रियाएँ भले ही विविध प्रकार की हैं, लेकिन अन्त में उनकी फल प्राप्ति एक ही है।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।28।।
ये जो योग बतलाए गए हैं उनमें से एक को ‘द्रव्यज्ञ’ कहते हैं, एक को ‘तपोयज्ञ’ कहते हैं, एक को ‘योगयज्ञ’ कहते हैं एक को ‘वागयज्ञ’ कहते हैं, एक को ‘ज्ञानयज्ञ’ कहते हैं। ये सारे यज्ञ अति कठिन हैं तथा उनका आचरण भी कठिन हैं। योग समृद्धि से सम्पन्न पुरुष ही ये यज्ञ कर सकते हैं।
अपाने जुह्नति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।29।।
कोई अभ्यास करके अपान वायु रुपी अग्नि में प्राण-वायु द्रव्य का हवन करते हैं, कोई अपान-वायु प्राण-वायु में मिलाते हैं और कोई दोनों का निरोध करते हैं। उन्हें ‘प्राणायामी’ कहा जाता है।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्नति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।30।।
कोई हठयोग के द्वारा सभी प्रकार के आहारों को जीतकर प्राण रुपीअग्नि में प्राणों का हवन करते हैं। इस प्रकार अग्नि और यज्ञ करने वाले का द्वैतभाव नहीं रहता। इससे सारे कर्म समाप्त हो जाते हैं।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्य सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसŸाम।।31।।
ऐसा जो अनादि सिद्ध तथा शुद्ध यज्ञ के परिणाम स्वरूप शेष बचने वाला ज्ञानस्वरूप ब्रह्म है, उसका ब्रह्मनिष्ठजन ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के मन्त्र से सेवन करते हैं। इस प्रकार यज्ञ से बचा हुआ ज्ञानरूप अमृत पीकर जो तृप्त हो जाते हैं, वे ही सहज ब्रह्मŸव प्राप्त करते हैं। जो योगयज्ञ भी नहीं करते उनका हे अर्जुन! इस लोक में कल्याण नहीं है। उनके परलोक के विषय में क्या पूछते हो? उनके बारे में बात करना ही व्यर्थ है।
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।32।।
इस प्रकार तुम्हें जो अनेक प्रकार के यज्ञ बतलाए गए हैं, उनके बारे में वेदों में अत्यन्त विस्तार से बतलाया गया है। उसका सार यही है किए सारे यज्ञ, कर्म से उत्पन्न हुए हैं। इतना जान लेने पर कर्म की बाधा नहीं होती।- क्रमशः (हिफी)