अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-4

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-4 के श्लोक 33 से 42 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।33।।
हे अर्जुन! जिस यज्ञ का मूल वेद है, और जिसमें बाह्य क्रियाओं के झंझट है और जिसका प्रथम फल स्वर्ग है, वे द्रव्यादि यज्ञ अवश्य हैं, लेकिन जिस प्रकार सूर्य के आगे नक्षत्रों का तेज लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार वे यज्ञ ज्ञान-यज्ञ की बराबरी नहीं कर सकते। जहाँ मन का अपनापन समाप्त हो जाता है, जहाँ शब्दों की गति रूक जाती है, और जहाँ ज्ञेय ब्रह्म व्याप्त दिखाई देता है, वहाँ बिना परिश्रम के अपने आप आत्मज्ञान हो जाता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तŸवदर्शिनः।।34।।
ऐसा सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त करने की यदि तुम्हारी इच्छा है तो तुम ब्रह्म-ज्ञान सम्पन्न संतों की सब प्रकार से सेवा करो। वे सन्त ज्ञान का घर है तथा सेवाधर्म उस घर की दहलीज है। उस दहलीज को अपने अधिकार में कर लो। सेवा से प्रसन्न हो जाने के बाद वे इसका कृपापूर्वक उपदेश करेंगे।

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।35।।
उनके उपदेश से जब ब्रह्म की तरह निःसन्देह एवं निश्चित अन्तःकरण होगा, उस समय तुम अपने वर्तमान तथा भूत को मेरे अखण्ड स्वरूप में देखोगे। इससे तुम्हारे अन्तःकरण में ज्ञान का उदय होकर मोह रूपी अन्धकार नष्ट हो जाएगा।

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृŸामः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।36।।
तुम भले ही पापों के सागर, भ्रन्तियों के आगार अथवा विकारों के पर्वत हो लेकिन ज्ञान की शक्ति के सामने यह सब तुच्छ है। इतना इस ज्ञान में सामथ्र्य है। जिस परमात्मज्ञान का उदय होते ही विश्व के आभास का भ्रम दूर हो जाता है तो फिर उस ज्ञान के आगे मन के अज्ञान की क्या बिसात है। इस संसार में ज्ञान के बराबर कोई चीज नहीं है।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।37।।
त्रिलोकी में आग लगने पर आकाश में फैले हुए धुएँ को वायु का तूफान क्षण भर में दूर हटा हेता है, उसे एक बादल को हटाने में क्या लगता है। अथवा पवन से प्रज्वालित जो अग्नि पानी को भी जला देती है, ऐसी प्रलयकाल की अग्नि क्या घास और लकड़ियों को नहीं जला पाएगी?

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।38।।
जिस प्रकार चैतन्य का अन्य कोई पर्याय नहीं है, उसी प्रकार संसार में ज्ञान की बराबरी करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ज्ञान को ज्ञान की ही उपमा दी जा सकती है। ज्ञान प्राप्ति का जो उपाय है, वह अब मैं तुम्हें बताता हूँ।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।
जो ज्ञान प्राप्ति तथा श्री गुरु के उपदेश को श्रद्धा से ग्रहण करता है उसी पुरुष को निश्चित रूप से ज्ञान प्राप्त होता है। वह ज्ञान मन में स्थिर हो जाने पर, शान्ति का अंकुर फूटकर आत्म-बोध का प्रकाश होने लगता है। ज्ञान की महिमा का जितना वर्णन किया जाए उतना ही कम है।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।40।।
जिस मनुष्य में ऐसे ज्ञान के प्रति चाह नहीं, उसके जीवत रहने के बारे में क्या कहा जाए? उसकी अपेक्षा मर जाना अच्छा है। कोई उजाड़ घर हो या बिना प्राण का शरीर हो उसी प्रकार ज्ञानहीन मनुष्य का जीवन मोहयुक्त है। सच्चा ज्ञान भले ही प्राप्त न हुआ हो, लेकिन उसे प्राप्त करने की इच्छा अगर मनुष्य में है तो उसे ज्ञान प्राप्त होने की थोड़ी सम्भावना रहती है। जो संशय में पड़ गया उसका विनाश हो गया, ऐसा समझ लो। वह इस लोक तथा परलोक दोनों के सुखों से वंचित हो गया। सच और झूठ, अनुकूल तथा प्रतिकूल, हित तथा अहित-ये बातें संशयी पुरुषों को समझ में नहीं आती। जिस प्रकार जन्मान्ध को रात और दिन का अन्तर नहीं मालूम होता, उसी प्रकार संशयी पुरुष को कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती।

योगसत्रयस्तकर्माणं ज्ञानस´्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबन्धन्ति
धनंजय।।41।।
इसलिए संशय से भयंकर अन्य कोई पाप नहीं है। इसका अस्तित्व ज्ञान के अभाव के कारण है। अज्ञान से ही मन में संशय बढ़ता है। यह बुद्धि को भी ग्रस लेता है। फिर उस मनुष्य को तीनों लोक संदेहास्पद् दिखाई देने लगते हैं।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छिŸवैनं संशयं योगमातिष्ठोŸिाष्ठ भारत।।42।।
इस अज्ञान का विनाश ज्ञानरूपी खड्ग से ही हो सकता है। इसलिए पार्थ। अपने मन का संशय दूर करों।- क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button