
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-4 के श्लोक 1 से 9 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1।।
फिर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-कर्मयोग जिसका उपाय है, ऐसा यह ज्ञानयोग
हमने पहले विवस्वान-अर्थात् सूर्य को बतलाया था। लेकिन उस बात को अब बहुत दिन हो गए। सूर्य ने यह सारा योग वैवस्वत मनु को
बलताया और मनु ने उसका आचरण कर
इक्ष्वाकु नामक अपने पुत्र को उसका उपदेश दिया। इस प्रकार यह परम्परा मूल रूप में चली आ रही है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।2।।
फिर और भी कुछ राजर्षियों को यह योग मालूम हुआ, लेकिन आजकल वह बहुत ही कम लोगों को मालूम है। जिस गाँव में सब दिगम्बर ही हैं, वहाँ कीमती वस्त्रों का क्या मूल्य है? या जो जन्म से अन्धा है, उसके लिए सूर्य का क्या उपयोग हैं? बहरों की सभा में संगीत को कौन सम्मान देगा? उसी प्रकार जिन्होंने वैराग्य की सीमा भी नहीं देखी उन मूर्खों को मुझ परमेश्वर का लाभ कैसे होगा? इसलिए इस लोक में यह बुद्धियोग डूब गया।
स एवायं मया तेऽघ योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुŸामम्।।3।।
हे कुन्तीपुत्र! सचमुच यही योग हमने
तुझे आज बताया है। तुम जरा भी शंका न करो। तुम मेरे चहेते भक्त हो, मेरे विश्वास पात्र
हो इसलिए पहले तुम्हारा अज्ञान दूर करना
चाहिए।
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4।।
तब अर्जुन ने कहा- हे अनंता! आपने सूर्य को कर्मयोग बतलाने की बात कही है वह मेरे मन को नहीं रुचि। सूर्य क्या है, इसका अता-पता हमारे पिता तथा पितामह को भी नहीं है तो आपने उसे कब और कैसे उपदेश दिया? यह सूर्य तो बहुत पुराना है और आप तो आजकल के हैं इसलिए इस बात में हमें विरोधाभास दिखाई देता है। इसलिए आप झूठ कह रहे हैं, यह भी हम एकाएक कैसे कहें? इसलिए मेरी समझ में आ सके, ऐसी भाषा में बतलाइए।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।5।।
तब श्री कृष्ण ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हें यह नहीं मालूम कि तुम्हारे और मेरे अब तक अनेक जन्म हो गए। तुम्हें तुम्हारे जन्मों का स्मरण नहीं है लेकिन मैंने जिस-जिस समय जो-जो अवतार लिए हैं, उन सब का मुझे स्मरण है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपिसन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।6।।
इसलिए मुझे पिछली सभी बातों का स्मरण है। जन्म रहित होते हुए भी मैं माया के कारण अवतार लेता हूँ। मेरा अमूर्Ÿात्व नष्ट नहीं होता लेकिन अवतार लेने और उसके समाप्त होने का जो आभास होता है, वह माया के संयोग से केवल मुझमें ही दिखाई देता है। मेरी स्वतन्त्रता तो भंग नहीं होती लेकिन मैं कर्म के अधीन हूँ, ऐसा जो लोगों को लगता है, वह भ्रान्ति के कारण है। वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं है। हे अर्जुन! मैं तो निराकार ही हूँ लेकिन भक्तों का अनुग्रह पूर्ण करने के लिए माया को स्वीकार कर अभिनेता की तरह बाह्यरूप से आकार धारण करता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7।।
धर्म के रूप में जो कुछ है, उसको मैं युगो-युगों से रक्षा करूँ, यह क्रम मूल रूप से चलता आ रहा है। इसलिए जब-जब अधर्म के कारण धर्म का ह्रास होता है, तब-तब मैं अपनी जन्मरहित वाली भूमिका दूर रखता हूँ तथा निराकार रूप को याद भी नहीं रखता।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपिसन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।6।।
इसलिए मुझे पिछली सभी बातों का स्मरण है। जन्म रहित होते हुए भी मैं माया के कारण अवतार लेता हूँ। मेरा अमूर्Ÿात्व नष्ट नहीं होता लेकिन अवतार लेने और उसके समाप्त होने का जो आभास होता है, वह माया के संयोग से केवल मुझमें ही दिखाई देता है। मेरी स्वतन्त्रता तो भंग नहीं होती लेकिन मैं कर्म के अधीन हूँ, ऐसा जो लोगों को लगता है, वह भ्रान्ति के कारण है। वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं है। हे अर्जुन! मैं तो निराकार ही हूँ लेकिन भक्तों का अनुग्रह पूर्ण करने के लिए माया को स्वीकार कर अभिनेता की तरह बाह्यरूप से आकार धारण करता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7।।
धर्म के रूप में जो कुछ है, उसको मैं युगो-युगों से रक्षा करूँ, यह क्रम मूल रूप से चलता आ रहा है। इसलिए जब-जब अधर्म के कारण धर्म का ह्रास होता है, तब7तब मैं अपनी जन्मरहित वाली भूमिका दूर रखता हूँ तथा निराकार रूप को याद भ्ज्ञी नहीं रखता।
परित्राणाय साधूनां विनाशय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।8।।
उस समय भक्तों का पक्ष लेकर मैं शरीर धारण कर अवतार लेता हूँ। और फिर अज्ञान रूपी
अन्धकार को निगल लेता हूँ और जो साधु हैं, उनके हाथों से सुख की पताका फहरवाता हूँ। दैत्यों के, अधर्मियों के कुलों का नाश करता हूँ, तथा साधुओं को उचित सम्मान दिखवाता हूँ। अविचार का गुल हटाकर विचार रूपी दीपक को प्रज्वलित करता हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेŸिा तŸवतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9।।
जो मेरे इस निर्विकार रूप को समझता है, वही परम भक्त है। वह शरीर धारण करने पर भी देहभाव से नहीं बँधता तथा मरने पर मेरे स्वरूप में आकर मिल जाता है।- क्रमशः (हिफी)