
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-5 के श्लोक 11 से 19 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
कायेन मनसा बुद्धîा केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये।।11।।
जिस प्रकार छोटे बच्चे के व्यवहार मन और बुद्धि को छोड़कर होते हैं, उसी प्रकार योगीजन केवल शरीर से कर्म करते हैं। योगीजन मानो व्यापार का भी आचरण करते हैं, लेकिन वे कर्म से नहीं बँधे होते क्योंकि उन्होंने अहंकार का त्याग किया होता है। बिना किसी अर्थ के जो काम होता है वह इन्द्रियों का ही कर्म है, ऐसा समझो। सब कुछ जानकर जो कर्म करते हैं, वह बुद्धि का कर्म है। योगीजन को अहंकार का भी स्मरण न होने से वे कर्म करते रहने पर भी शुद्ध है। ‘कर्म करने वाला मैं हूँ’ इस प्रकार का भाव न रखने वाले जो कर्म करते हैं वही ‘निष्काम कर्म’ कहलाता है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।12।।
आत्मज्ञान से पूरी तरह संतृप्त हो गया है ओर जिसे कर्मफल से घृणा हो गई है, उसे इस संसार में शान्ति जयमाला पहनाती है। जो दूसरा योगहीन संसारी जीव है वह कर्म बन्धन में बँधकर कष्ट भोगता है।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।13।।
फल की इच्छा से कर्माचरण करने वाले की तरह जो व्यक्ति सारे कर्म विधिवत् करता है, किन्तु उसका ‘कर्ता मैं नहीं हूँ’ यह सोचकर कर्मों का त्याग करता है, वह पुरुष जिधर भी देखता है, उधर सृष्टि सुखमय हो जाती है। और वह जहाँ रहता है वहाँ ब्रह्मज्ञान उपस्थित हो जाता है। फल की इच्छा मन में न रखने से वह शरीर में रहकर भी शरीर में न रहने के बराबर है और सारे कर्म करने पर भी वह अकर्ता बना रहता है।
न कर्तृव्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।14।।
ईश्वर यद्यपि अकर्ता है किन्तु माया की उपाधि से इस त्रिभुवन का विस्तार वही करता है। वह किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होता न कोई कर्म उसे स्पर्श करता है। वह उदासीन वृत्ति वाला है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।15।।
वह पाप-पुण्य की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। वह वहाँ उपस्थित नहीं रहता फिर भी वह चराचर सृष्टि का निर्माण करता है, पालन-पोषण करता है और अन्त में उसका संहार करता है, ऐसा जो लोग कहते हैं वे सब अपने अज्ञान के कारण ऐसा कहते हंै।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।16।।
यह अज्ञान जब पूरी तरह नष्ट हो जाता है, तब भ्रान्ति का अंधेरा नष्ट हो जाता है और तब ईश्वर का अकर्तृŸव स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है। इस प्रकार, ईश्वर अकर्ता है, इस सम्बन्ध मंे मन को पूरा विश्वास हो जाता है तो यह तथ्य पूरी तरह सिद्ध हो जाता है कि ‘मैं ईश्वर हूँ’। जिस प्रकार पूर्व में सूर्य के उदय होते ही प्रकाश फैल जाता है, उस समय दूसरी दिशाओं का अंधेरा भी समाप्त हो जाता है।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।17।।
जिसकी बुद्धि का आत्मज्ञान के प्रति निश्चय हो चुका है तथा स्वयं को ब्रह्मरुप मानता है और रात-दिन ब्रह्मपरायण होकर अपनी ब्रह्मस्थिति का पूरी तरह निर्वाह करता है, ऐसा सर्वव्यापी ज्ञान जिसके हृदय में भर जाता है उसकी समदृष्टि हो जाती है, यह बात शब्दों से कहने की क्या आवश्यकता है? जिस प्रकार चन्द्रमा कभी उष्मा के सम्बन्ध में नहीं जानता, उसी प्रकार जो ज्ञानी है, उन्हें प्राणीमात्र में भेद नहीं दिखाई देता।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।18।।
फिर यह भेद कहाँ रह जाता है कि यह अछूत है या यह ब्राह्मण है, यह गाय है या यह कुत्ता है, एक बड़ा है, एक छोटा है। इस प्रकार का द्वैतभाव का स्वप्न अद्वैत-बोध के जागृत पुरुषों को कैसे दिखाई देगा?
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्य तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।19।।
इसलिए जिनकी सदैव समान दृष्टि है, वह स्वयं ही अद्वितीय ब्रह्म है। यही समदृष्टि का लक्षण है, ऐसा समझ लो। वह शरीरधारी
होते हुए भी संसार उसे नहीं देख सकता। उसका शरीर और नाम भले ही संसार के अन्य लोगों की तरह हो, लेकिन वह साक्षात् ब्रह्म ही है। – क्रमशः (हिफी)