अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-5

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-5 के श्लोक 20 से 29 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।।20।।
जिस प्रकार मृगजल में बाढ़ आने के कारण पर्वत बह नहीं जाते, उसी प्रकार जिस ेअच्छी या बुरी वस्तु प्राप्त होने पर उससे विकार नहीं उत्पन्न होता, वही सच्चा योगी है। वही स्वयमेव ब्रह्म है।

ब्राह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।21।।
जो आत्मस्वरूप को छोड़कर कभी इन्द्रियों के अधीन नहीं होता, वह यदि विषयों का सेवन नहीं करता तो इसमंे आश्चर्य कैसा? आत्मसुख की पूर्णता से उसका अन्तःकरण स्वाभाविक रूप से सन्तुष्ट हुआ रहता है, इसलिए इन्द्रियों की ओर उसका मन नहीं झुकता। जिसे बैठे बिठाए आत्मरूप प्राप्त हो गया है, उसके विषयों का सहज ही त्याग हो गया है यह कहना क्या आवश्यक है?

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एवं ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते
बुधः।।22।।
जिस प्रकार दरिद्र पुरुष भूख से व्याकुल होने पर चोकर या भूसी भी खाता है, उसी प्रकार जिन्होंने आत्मसुख का अनुभव नहीं किया है वे ही इन इन्द्रियों से होने वाले विषयसुख में लीन होते हैं। सहज मंे देखा जाए तो विषय में सुख है, यह कहना ही ठीक नहीं है। फिर भी सुख है यह मानकर चला भी जाए तो फिर बिजली चमकने से पड़ने वाले प्रकाश में ही संसार के व्यापार क्यांे नहीं चलते? ये सब बातें छोड़ो। तुम यह बताओ कि नाग के फण की छाया चूहे के लिए कितनी सुखमय होगी? भोग से प्राप्त होने वाला सुख आरम्भ से अंत तक दुःख ही दुःख है, ऐसा समझो। पीप के कीड़ो को क्या कभी उससे घृणा होती है? अगर विषयासक्त लोग विषयोपभोग छोड़ दें तो महादोष कहाँ जाकर बस्ती करेंगे? जो विरक्त पुरुष है, वे इस विषयसुख को विष के समान मान कर, उसका त्याग करते हैं।

शक्रोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधो˜वं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।23।।
जिन्हें अन्तर्यामी आत्मसुख का अच्छा खासा लाभ हुआ है, वे विषयों की बात भी नहीं जानते। आत्मा एवं जीव की एकता में केवल सुख ही सुख रहता है। इस प्रकार जब द्वैत समाप्त होकर एकत्व हो जाता है उस समय एकता को जानने वाला साक्षी दूसरा कौन है?

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्र्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।24।।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।25।।
जो स्वयं आत्मस्वरूपी हो गया है, वही अपना लक्षण स्वयं जान सकता है। जो आत्मसुख में निमग्न हो गए वे ब्रह्मानन्द की साक्षात् मूर्ति ही हैं, ऐसा मै समझता हूँ। वे विवेक की जन्मभूमि व ब्रह्मतत्त्व का स्वभाव है। वह देह में रहते हुए भी परब्रह्म हो गया है। उसके अधिकारी अलिप्त पुरुष ही हैं।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।26।।
जिन्होंने अपने मन को विषयों से दूर रखकर उन पर विजय पाई है, वे जहाँ सोते हैं, वहाँ से कभी जागते नहीं हैं वे पुरुष आत्मज्ञान के कारण जो कैवल्य परब्रह्म है, वही है।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्यैवान्तरे भु्रवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।28।।
इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना इन तीनों के संधि स्थल पर जहाँ भौहों के सिरे मिलते है, वहाँ दृष्टि को घुमाकर स्थिर करते हैं और तब दाहिने और बाएँ दोनों नथुनों के मार्ग बन्द कर प्राणवायु और अपान वायु को मिला देते हैं और अपने मन को चिदाकाश में ले जाते हैं। जिस समय चिदाकाश के मन का प्राण के निरोध से विलय होता है, उस समय वासनाओं का विचार अपने आप ही नष्ट हो जाता है। जब मन ही पूरी तरह समाप्त हो जाता है, तब अहंकार आदि कहाँ से आयेंगे?

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।29।।
कुछ लोग देहधारी अवस्था में ही ब्रह्य हो गए थे। इस बारे में मैंने तुम्हें पहले बताया था। वे भी योगमार्ग से आए थे। वे भी पार हो गए। हे अर्जुन! जिस प्रकार से तुम्हारे मन का अच्छी तरह बोध होगा, उसी प्रकार से हम तुम्हें योग मार्ग बताएँ। उस योग को क्या कहते हैं, उसका क्या उपयोग है और उसका आचरण करने का अधिकारी कौन है? ये सारी बातें मैं तुम्हें बताता हूँ। मन लगाकर सुनो। – क्रमशः (हिफी)

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