अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-6

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-6 के श्लोक 10 से 19 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

योगी यु´्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।10।।
जिसका ज्ञानसूर्य कभी अस्त नहीं होता वह अपने आप में ही प्रसन्न रहता है। इस प्रकार जो व्यापक दृष्टि से विचार करता है, वही अद्वितीय है। वह तीनों लोकों में अकेला रहने के कारण संग्रह न करने वाला है, यह जान लो। हे अर्जुन! यह योग मार्ग सभी मार्गो का राजा है, उसे सुनो।

शुचै देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।11।।
इस प्रकार के योगाभ्यास के लिए एक उपयुक्त स्थान खोजना पड़ेगा। वह स्थल ऐसा हो जहाँ विश्राम करने की इच्छा पूरी होने के कारण उठने की इच्छा न हो। वह स्थान पहले के सत्पुरुषों द्वारा बसाया हुआ हो। उस स्थान पर अभ्यास करने से प्रेरणा प्राप्त हो। इस प्रकार जो स्थान उत्तम है तथा अतिशुद्ध है वहाँ ब्रह्मानन्द का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। उस स्थान पर साधकों की बस्ती हो, अन्य लोगों की भीड़ न हो। उस स्थान पर अमृत जैसे मिठास वाले पेड़ और फल हों, वहाँ पग-पग पर पानी के सोते हों। वहाँ सूर्य की रोशनी सौम्य हो, हवा मन्द व शीतल हो। यहाँ शोरगुल न हो तथा जानवरों की भीड़ भाड़ न हो, तोता तथा भ्रमर पक्षी अधिक न हों। जहाँ एक गुफा या शिवालय हो। ऐसे स्थान पर एकान्तवास के लिए बैठो। वहीं अपना आसन जमाओ। आसन में ऊपर धूत वस्त्र, उसके नीचे कृष्णाजिन तथा उसके नीचे साग्र कुश हों। वह आसन न अधिक ऊँचा हो न नीचा। ऐसे आसन की योजना की जाए।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने यु´्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।
फिर उस स्थान पर मन को एकाग्र कर, सद्गुरु का स्मरण कर आत्मसुख का अनुभव किया जाए। उस स्थान पर बैठकर जब तक अहंभाव नष्ट होकर अष्टसात्विक भाव से उत्पन्न हो रहा है तब तक सद्गुरु का सादर स्मरण किया जाए तब तक, जब तक विषयों का पूरी तरह विस्मरण न हो जाए। इस प्रकार स्वाभाविक एकता की अवस्था आने तक उसी स्थान पर रहना चाहिए और फिर आत्मबोध से युक्त होकर आसन पर बैठना चाहिए। उसके बाद मूल बन्ध लगाना चाहिए। इसी को वज्रासन भी कहते हैं। इससे आपान वायु भीतर ही भीतर ऊपर जाने लगती है।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।13।।
इसके बाद जालन्धर बन्ध लगाना चाहिए तथा फिर उड्डियान बन्ध लगाकर अभ्यास करना चाहिए। यह शरीर के बाहरी हिस्से का अभ्यास शुरू हुआ।

प्रशान्तात्मा विगतभीब्र्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।14।।
इससे मनोधर्म समाप्त हो जाता है, कल्पना संकुचित होती है, मन की हवस कम हो जाती है और मनोविकार अपने आप बन्द हो जाते हैं। भूख और नींद कहाँ चली गई इसकी याद ही नहीं रहती और उसका पता भी नहीं चलता। मूलबन्ध के कारण रुकी हुई आपान वायु रह-रहकर मणिपूर को धक्का मारता है। यह वायु कफ व पित्त का विनाश करती है। वह व्याधियों को उत्पन्न करती है और शीघ्र नष्ट भी करती है। वज्रासन की उष्णता से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। यह शरीर को निचोड़ कर उसे शुष्क बना देती है। अन्त में
शरीर इतना तेजस्वी दिखाई देने लगता है मानों त्वचा का आवरण ओढ़कर साक्षात् तेज ही अवतरित हुआ हो। देह की कान्ति सुवर्ण जैसी हो जाती है। तथा उसे अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती है। हृदय में प्रवेश करते ही अखण्ड अनाहत की ध्वनि होने लगती है।

युजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।15।।
जिस समय शक्ति का तेज समाप्त हो जाता है, उस समय देह का रुप भी अदृश्य हो जाता है और वह योगी इतनी सूक्ष्म देह धारण करता है कि लोगों को दिखाई नहीं देता। अन्त में यह जीवात्मा ब्रह्मानन्द में प्रवेश करता है। यह अनुभव शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। हे पार्थ! वह ब्रह्म मेरा मूल स्वरूप है।

नात्यश्रतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्रतः।
न चाति स्वप्रशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।16।।
जो दुराग्रह के आवेश में भूख और प्यास को खत्म करता है ओर भोजन कम करता है और नींद का नाम भी नहीं लेता और मन में गहरा अहंकार रखता है, उसका शरीर भी उसके अधीन नहीं रहता, फिर उसे योग कैसे सिद्ध हो सकता है? इसलिए विषयों का अत्यधिक सेवन या बिल्कुल त्याग करने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। सारी बातें नियम पूर्वक करनी चाहिए।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्रावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।17।।
आहार भी नियमपूर्वक और उचित मात्रा में करना चाहिए जो भी कार्य करें वह ठीक ढंग से करना चाहिए। व्यायाम भी उचित मात्रा में करना चाहिए। नींद भी निर्धारित समय पर लेनी चाहिए।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।18।।
इस प्रकार बाह्य इन्द्रियों को नियमित रखने से अन्तर्यामी सुख प्राप्त होगा तथा उस मनुष्य को अभ्यास किए बिना ही योग साध्य होगा। इसलिए हे अर्जुन! जिस भाग्यवान पुरुष को यह संयम वाला योग सध जाय वह मोक्ष के राज्य में सुशाभित होता है।

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य यु´्जतो योगमात्मनः।।19।।
नियमपूर्वक चलने वाले के मन में यदि योगाभ्यास करने की इच्छा होती है तो वह गंगा और यमुना का संगम होने वाले प्रयाग तीर्थ के समान है। उसके मन के लिए निर्वात स्थान पर रखे हुए दीपक की उपमा दी जाती है। पारलौकिक दृष्टि से जो अच्छा है, वह हमेशा इन इन्द्रियों को दुःखदायी लगता है, नहीं तो इस योगाभ्यास के अतिरिक्त और कोई आसान साधन नहीं है।- क्रमशः (हिफी)

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