अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-6

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-6 के श्लोक 35 से 47 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

श्री भगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।35।।
श्री कृष्ण कहते हैं – इस मन का स्वभाव सचमुच ही चंचल है किन्तु इसे वैराग्य के आधार पर अभ्यास में लगाने से यह कुछ समय के बाद स्थिर हो जाएगा। इस मन में एक अच्छी बात यह है कि इसे जिस चीज का चस्का लग जाएगा वह वहीं रहने के लिए आतुर रहेगा।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।36।।
जिसमें वैराग्य नहीं है और जो अभ्यास भी नहीं करता, उसे यह मन सँवारना कठिन है। जो यम-नियम, प्राणायाम इत्यादि का अभ्यास नहीं करता, जिसे वैराग्य का कभी स्मरण नहीं होता, और जो केवल विषयरूपी जल में मछली की तरह डुबकी लगाकर बैठा हुआ है।, और जिसने मन को नियन्त्रण में नहीं रखा है, उसका मन कैसे स्थिर हो पाएगा, बताओ। इसलिए मन के निग्रह करने का जो उपाय है, उसका अभ्यास तुम आरम्भ करो, फिर देखो वह कैसे निश्चल नहीं होता?

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।37।।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38।।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।39।।
लेकिन हे प्रभो! एक मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्तियुक्त अन्तःकरण से, बिना कोई उपाय किए इच्छा कर रहा है किन्तु उसे मोक्ष भी प्राप्त नहीं होता और संसार में वापस भी नहीं आया जाता, ऐसी अवस्था में उसके जीवन का सूर्य अस्त हो गया, वह दोनों से वंचित हो गया, उसे कौन सी गति प्राप्त होती है, बताइए।

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।40।।
तब श्री कृष्ण ने कहा – पार्थ! जिसे मोक्ष प्राप्ति की इच्छा है, उसे मोक्ष के अलावा और कोई गति नहीं है। उसे बीच में केवल विश्राम करना होता है, इतना ही। लेकिन उस विश्राम में उसे जो सुख मिलता है, वह देवताओं के भी भाग्य में नहीं होता। यदि अभ्यास के पथ पर उसके पैर जोर से पड़े होते तो दिन (आयु) अस्त होने के पूर्व ही उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया होता किन्तु उसकी गति न होने के कारण उसे विश्राम करना पड़ा।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।41।।
जिन लोकों की प्राप्ति के लिए, सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र को भी प्रयास करने पड़ते हैं, वे इस मोक्षेच्छु पुरुष को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। वहाँ के भोग भोगने के बाद वह पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है, लेकिन जहाँ सब धर्मों का वास हो, ऐसे कुल में जन्म लेता है।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।42।।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।43।।
अथवा जो योगी ज्ञानरूपी अग्नि में हवन करते हैं, जो ब्रह्मानुभूति सम्पन्न और वेद सम्पन्न हैं, तथा परब्रह्म रूपी गाँव के जागीरदार हैं, जो ‘एकमेवाद्वितीयं’ इस सिद्धान्त के सिंहासन पर बैठकर पूरे त्रिभुवन पर राज्य करते हैं, ऐसे योगियों के कुल में वह योगभ्रष्ट पुरूष जन्म लेता है। जन्म लेने के उपरान्त कम उम्र में ही उसमे आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है। पूर्व जन्म में सिद्ध बुद्धि के कारण उसे सभी विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्यातिवर्तते।।44।।
और पूर्व जन्म की सद्बुद्धि के उत्कर्ष काल में उसके जीवन का अन्त हुआ था, उस समय की सद्बुद्धि उसे प्राप्त होती है। उसकी इन्द्रियाँ अपने आप ही मन के अधीन हो जाती हैं, मन प्राणवायु में मिल जाता है और वह प्राणवायु चिदाकाश में मिल जाता है, योगाभ्यास भी उसे अपने आप प्राप्त हो जाता है और समाधि भी उसके मन के घर का पता पूछते हुए आती है।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।45।।
क्योंकि करोड़ों के बाद हजारों जन्मों का प्रतिबन्ध दूर कर वह आत्मसिद्धि के किनारे पर पहुँचा जाता है। इसलिए सभी साधन उसे प्राप्त हो जाते हैं, और फिर वह सहज ही विवेक की गद्दी पर जा बैठता है। वह उस निराकार स्थिति का स्वरूप ही हो जाता है।

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।46।।
वह योगी कर्मनिष्टों के लिए वन्दनीय, तथा ज्ञानियों के लिए विचारणीय और तपस्वियों का मूल तपोनाथ है। इसलिए अर्जुन! तुम अन्तःकरण से योगी बनो।

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।47।
अरे! योगी का अर्थ देवों का देवता, मेरे सारे सुखों का घर और केवल मेरा प्राण, ऐसा समझो। वह प्रत्यक्ष मैं ही हूँ।- क्रमशः (हिफी)

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