अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-6

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-6 के श्लोक 1 से 9 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्रिर्न चाक्रियः।।1।।
श्री कृष्ण कहते हैं-पार्थ! देखो, योगी और सन्यासी इस संसार में एक ही हैं। ब्रह्म दृष्टि से देखने पर उन दोनों में कोई भेद नहीं मालूम होगा। इसलिए जो योग है वहीं सन्यास है, दोनों में कोई भेद नहीं है, यह समझ लो। हे अर्जुन! जो कर्म करके भी फल की इच्छा नहीं रखता वही व्यक्ति इस संसार में योगी समझा जाता है। जो अपने शरीर में अहंकार उत्पन्न नहीं होने देता और फल की आशा नहीं करता ऐसा ही पुरुष हे पार्थ! सन्यासी है और वही निःसन्देह योगीश्वर है। और जो स्वाभविक और नैमित्तिक कर्मों को केवल बन्धनकारक होने के कारण छोड़ देता है, वह अन्य कर्म करने की ओर प्रवृत्त होता है व व्यर्थ का कष्ट भोगता है। इसलिए श्रौत-स्मार्त, अग्निहोत्र आदि कर्मों का आचरण नहीं छोड़ना चाहिए और कर्म की सीमा का भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।2।।
सुनो! जो सन्यासी है वही योगी है। कर्म करने की स्थिति में जहाॅ संकल्प छोड़ देने के कारण टूट जाते हैं, वहीं योग का सार हाथ लग जाता हे। यही तथ्य शास्त्रकारों ने स्वानुभव से निश्चित किया है।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।3।।
हे पार्थ! इस प्रकार यदि योगरूप पर्वत के शिखर पर पहुँचना है, तो उसे कर्ममार्ग की सीढ़ी चढ़ने से नहीं चूकना चाहिए। इस कर्ममार्ग पर चलने के लिए पहले इस पर्वत की यम-नियमों की आधार भूमि लगती है, फिर योगासनों की पगडंडी से प्राणायाम रूपी टेकरी से ऊपर जाना होता है, फिर प्रत्याहार रूपी टूटी हुई पहाड़ी पड़ती है। उस पर से बुद्धि के भी पैर फिसलने लगते हैं और उस टूटे हुए किनारे का रास्ता पार करते समय नीचे गिरने के भय से बड़े-बड़े योगियों की प्रतिज्ञा भी नहीं टिक पाती। फिर भी निरन्तर अभ्यास से प्रत्याहार रूपी निर्जन मार्ग पर केवल वैराग्य ही धीरे-धीरे चढ़ सकता है। इस प्रकार वायुरूपी घोड़े पर बैठकर, चित्त को स्थिर रखकर, धारणा का अन्त आने तक चलते रहना चाहिए। फिर जिस स्थान पर साध्य और साधना एक हो जाते हैं, वहाँ धारणा मार्ग का अन्त हो जाता है, तथा प्रवृत्ति की लालसा समाप्त हो जाती है और जिस स्थान पर जाकर अगला कदम रूक जाता है तथा पिछली सारी स्मृति नष्ट हो जाती है, उसी समानभूमिका रूपी समाधि में वह पुरुष रहता है। इस उपाय से जो योगारुढ़ हो गया, वह निश्चित रूप से परिपूर्ण हो गया।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।।4।।
देखो! जिसे आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसके इन्द्रियों के घर में विषयों का आना जाना बन्द हो जाता है। सुख-दुखों से झगड़ा करने के प्रति उसके मन में चाव नहीं रहता। उसी प्रकार साक्षात् विषय उसके सामने आ जाने पर भी उसे उसका ध्यान नहीं आता। इस प्रकार देह के इतने व्यापार चलते रहने पर भी जो निद्रावस्था के समान उदासीन रहता है, उसे ही योगसाध्य हुआ है, ऐसा समझो।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।5।।
जिस समय मनुष्य भ्रान्तिरूप शय्या पर गहरे अज्ञान में सोया रहता है, उस समय वह जन्म – मृत्यु के दुष्ट स्वप्न भोगता रहता है। फिर एकाएक जागने पर वे जन्म-मरण रूपी स्वप्न व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं, ‘मै अमर हूँ’ इसका उसे स्वयं विश्वास होने लगता है। इसलिए हे धनंजय! शरीर का अभिमान कर मनुष्य स्वयं ही अपने विनाश के लिए प्रवृत्त होता है।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6।।
यदि हम अहंकार का त्याग कर दें तो स्वयं नित्य सिद्ध बह्मरूप हो जाएँ। ऐसा करने से हम अपना कल्याण स्वयं कर सकते हैं। जो निरर्थक ही पकड़ा गया उसे बाँधने के लिए क्या कोई और आया था? इसलिए जिसने मन में ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह संकल्प बढ़ाया है, वह स्वयं ही अपना शत्रु है लेकिन जो पुरूष आत्मानुभवी है वह झूठा अभिमान नहीं करता।

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।7।।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः।।8।।
जिसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली है और जिसकी सभी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, उसके लिए अन्य जनों की तरह परमात्मा दूर नहीं है। सोने को गर्म करने पर उसका दोष निकल जाने से जिस प्रकार सच्चा सोना तैयार हो जाता है, उसी प्रकार संकल्प-विकल्प का झगड़ा मिट जाने पर जीवन का ब्रह्मत्व सहज सिद्ध ही है। जिस प्रकार घट के आकाश को, घट के फूटने पर महाकाश में मिलने के लिए कहीं अन्यत्र नहीं जाना पड़ता, उसी प्रकार जिसके देह के अहंकार का समूल नाश हो गया है वह पुरुष मूल से ही परमात्मा है। ऐसी अवस्था में शीत या उष्ण, सुख या दुःख, मान अथवा अपमान प्राप्त होते हुए भी, जिसमें उसके प्रति विचार नहीं संभव होता। जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है वह ज्ञानी देहधारी होते हुए भी परब्रह्म की बराबरी का समझा जाता है। वही सहज जितेन्द्रिय तथा वही योगी है। वह मिट्टी-पत्थर और स्वर्ण को समान समझता है।

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।9।।
उसके मन में स्नेही और शत्रु, उदासीन ओर मित्र इस प्रकार की चित्र और विचित्र कल्पनाएँ कहाँ आएगी? मैं ही विश्व हूँ, इसका जिसे ज्ञान हो गया है, उसके मन में बन्धु कौन है और उसका किसके साथ द्वेष है? उसकी दृष्टि को छोटा और बड़ा यह आभास कैसे होगा? उसकी बुद्धि हमेशा चराचर में एकत्व को ही जानती है। विश्वरूप अलंकारों का गठन भले ही भिन्न-भिन्न आकारों का हो किन्तु वे सब एक ही परब्रह्म रूपी सुवर्ण के बने हैं। यह शुद्ध और सच्चा तत्व जिसने जान लिया है वह चित्र-विचित्र रचनाओं के भ्रम में बार-बार फँसता नहीं है। उसे दुनिया में ब्रह्म के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई देता। ऐसे पुरुष की स्तुति करने से महान् लाभ ही है।- क्रमशः (हिफी)

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