अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-7

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है।

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-7 के श्लोक 14 से 30 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।14।।
इसलिए हे धनंजय! यह महत्तत्वदि मेरी माया को पार कर मेरा रूप किस प्रकार पार करना चाहिए? इस बात का अनुभव कैसे प्राप्त होगा? इस मायानदी को पार करना अति कठिन है। जिन्हांेने विषय का साथ लिया, उनका जीना व्यर्थ हुआ। इस मायारूपी नदी को जीव पार नहीं कर सकता। किन्तु जो अनन्य रूप से मेरी शरण में आते हैं वे इस दुस्तर नदी को सहज ही पार कर जाते हैं। किन्तु ऐसे भक्त विरले होते हैं।

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।15।।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।16।।
जो माया से ग्रस्त रहते हैं वे मुझे खो देते हैं किन्तु केवल चार ने ही मेरा भजन करके आत्महित की वृद्धि की है। इन चारों में पहले को आर्त, दूसरे को जिज्ञासु, तीसरे का अर्थार्थी तथा चैथे को ज्ञानी कहते है।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।17।।
आर्त दुःख निवारण के लिए ही मेरी भक्ति करता है, मुमुक्षु ज्ञान प्राप्ति के लिए और तीसरा अर्थार्थी द्रव्य प्राप्ति के लिए मेरी भक्ति करता है। किन्तु जो चैथा है, वह बिना किसी कर्तव्य के मुझे भजता है इसलिए वह ज्ञानी पुरुष ही मेरा भक्त है, यह ध्यान में रखो। क्योंकि उसके ज्ञान के प्रकाश में भेदाभेद रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है और उसकी भक्ति भी उसी तरह कायम रहती है।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।18।।
इसलिए अपने हित के लिए कोई भी मनुष्य मेरी भक्ति करता है, लेकिन जिस पर मैं प्रीति करता हूँ, ऐसा वह एक भक्त ज्ञानी ही है। देखो दूध की आशा से सब लोग गाय को बाँधकर रखते है लेकिन अपने बछड़े को वह बिना बाँधे दूध पीने देती है। वह बछड़ा उसका अनन्य भक्त रहता है इसलिए गाय भी उस पर वैसा ही प्रेम करती है। ज्ञानी के सिवाय जो अन्य तीन भक्त तुम्हें बताए, वे भी मुझे प्रिय हैं। उन्हें जब मेरा ज्ञान मालूम हो जाता है तो वे पुनः मुड़कर संसार की ओर नहीं देखते। जिसे ज्ञानी कहते हैं, वह मेरी आत्मा है।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।19।।
जो काम क्रोधादिक संकटों के घने जंगल को टालकर निर्मल वासना के पर्वत पर चढ़कर आया, साधुओं की संगति से, सत्कर्म के सीधे रास्ते पर चलकर, दुराचरण के मार्ग को छोड़कर और फल की आशा न कर, सैकड़ों वर्षो तक भक्ति की राह पर चलने वाला वह ज्ञानी भक्त क्या फल के उद्देश्य का विचार करेगा? इसी से सहज कर्मक्षय होकर ज्ञानोदय की भोर होती है उस समय वह जिधर भी देखता है, उधर उसे मेरे सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई देता। इसलिए भक्तों में वही श्रेष्ठ और वही ज्ञानी है।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियतः स्वया।।20।।
और फल की इच्छा से उनके हृदय में काम का प्रवेश हो जाने के कारण, उसके संसर्ग से ज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है इसलिए मैं उनके पास होते हुए भी वे मुझसे दूर हो जाते हैं। फिर वे देवताओं को भजने लगते हैं।

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।21।।
लेकिन जो भी कोई जिस देवता की फल के लिए उपासना करते हैं, उनकी इच्छा मैं ही पूर्ण करता हूँ। देखो! देवी-देवता मैं ही हूँ।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।22।।
फिर जिन-जिन देवताओं के प्रति श्रद्धा है, उन-उन देवताओं की कार्य सिद्धि होने तक यथाविधि पूजन करते हैं। उसका वह फल मुझसे ही प्राप्त होता है।

अन्तवत्तु फलं तेषां तभ्दवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मदभक्ता यान्ति मामपि।।23।।
लेकिन वे भक्त मुझे नहीं जानते, क्योंकि वे आशा के पाश से मुक्त नहीं हो पाते इसलिए उन्हें नाशवान फल प्राप्त होते हैं। ऐसा भजन संसार का साधन ही है।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययममनुत्तमम्।।24।।
हे धनुर्धर! फल का आशारूपी पिंजरा छोड़कर चिदाकाश का मालिक ही क्यों न बनें? मुझ निराकार को साकार क्यों माना जाए? मैं सिद्ध हूँ तो मुझे प्राप्त करने के लिए साधनों का प्रयोग क्यांे किया जाए?

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।25।।
क्योंकि माया का पर्दा पड़ने से वे अन्धे हुए है। इसलिए वे मुझे नहीं देख पाते अन्यथा ऐसी कौन सी वस्तु है जहाँ मैं नहीं हूँ। पूरे विश्व में मैं ही व्याप्त हूँ।

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।26।।
इस दुनिया में जितने प्राणी हो गए, उनमें मैं ही था और आज जो है, उनमें भी मैं ही हूँ, या आगे जो होने वाले हैं, वे भी मुझसे भिन्न नहीं हैं। हे पांडुपुत्र! इस प्रकार मैं हमेशा अखण्ड व्याप्त हूँ।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।27।।
हे अर्जुन! असन्तोष रूपी मद्य पीकर, उन्मक्त होने के कारण वह पुरुष विषयों की कोठरी में उपायेग करता है। उसने शुद्ध भक्ति के मार्ग के आड़े तिरछे मार्ग तैयार किए हैं। इसलिए प्राणीमात्र भ्रम में पड़कर संसाररूपी जंगल में फँस जाते हैं और उन्हें महादुःख की यातनाएँ सहनी पड़ती है।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।28।।
जो बुद्धि को इस भ्रमजाल में नहीं पड़ने देते और विकल्प को छोड़ देते हैं और पुण्य के मार्ग पर दौड़ते हुए मेरे सान्निध्य में आ जाते हैं वे इस राह के लुटेरों से बच जाते हैं।

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्त्रमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।29।।
वैसे पार्थ! जन्ममरण से छूटने का जो साधन है, उसे प्राप्त करने की इच्छा जिसके मन में उत्पन्न होती है, उनका प्रयत्न कभी तो फलाद्रुप होकर उन्हें ब्रह्म प्राप्ति होती है तथा वे पूर्णता को प्राप्त होते है, उस समय उन्हें लगता है कि वे धन्य हो गए। इस प्रकार उन्हें आत्मज्ञान का लाभ प्राप्त होता है।

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।30।।
जिन्होंने अनुभव के हाथों से मायावश जीवन को पकड़कर पंचभौतिकों के साथ मेरा स्पर्श किया है, जिन्होंने ज्ञान के बल से मुझे अधियज्ञ की दृष्टि से देखा है, उन्हंे शरीर के वियोग का दुःख नहीं होता। वे मृत्यु जैसे कठिन समय में भी मुझे नहीं भूलते। जो पूर्ण ज्ञानी हैं, उन्होंने ही मेरे साथ ऐक्य प्राप्त कर लिया है। – क्रमशः (हिफी)

 

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