
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-8 के श्लोक 10 से 19 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्-स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।10।।
इस निर्दोष ब्रह्म को जानकर, मृत्यु का समय निकट आने पर जो एकाग्रचित्त से उसका स्मरण करता है तथा वह योगी चित्त और प्राण को भ्रकुटी में सँवार कर रखता है उस समय दोनों का विलय होता है और वह आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है, वह मेरे निज स्वरूप में जाकर मिल जाता है।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।11।।
जो ज्ञान सभी ज्ञानों की पराकाष्ठा है और सभी ज्ञानों की खान है, ऐसे बुद्धिमान ज्ञानी पुरूषों ने भी उसे ‘अक्षर’ (अविनाशी) कहा है। वह समझने में असम्भव है। वह माया से परे तथा सच्चिदानन्द रूप है, जिसे वेद भी नहीं जान सके हैं उस पद को वे ही प्राप्त करते हैं जो मेरे कहे अनुसार देह का त्याग करते है।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।12।।
परन्तु, जिस समय इन्द्रियों के द्वार निग्रह के कारण बन्द रहते हैं, तभी यह बात घटती है। ऐसा होने पर मन सहज ही अन्दर ही अन्दर बन्द हो जाता है और हृदय में निश्चिन्त पड़ा रहता है। जिस प्रकार हाथपैर टूटा हुआ प्राणी अपना घर नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हे अर्जुन! चित्त की स्थिरता हो जाने पर प्राणायाम से ऊँकार का ध्यान करना चाहिए। फिर प्राणवायु को धीरे-धीरे ब्रह्मरन्ध्र तक लाना चाहिए। फिर प्राणवायु को इस प्रकार स्थिर रखे कि वह ब्रह्माकाश में मिलता हुआ सा हो। फिर ऊँकार से उसका संयोग हो जाने पर वह अपने मूल स्वरूप ब्रह्म में रममाण हो जाता है।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।13।।
उसी के साथ – साथ ऊँकार का स्मरण बन्द हो जाता है और प्राण का अन्त हो जाता है। फिर ऊँकार के परे जो ब्रह्मानन्द स्वरूप है, वही शेष रहता है। इसलिए जो एकाक्षर ब्रह्म है, उसका अर्थात् मेरे परम स्वरूप का स्मरण करते समय, जो ऐसी स्थिति में ही देह त्याग करता है, वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर लेता है। उसे मेरी प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य कोई श्रेष्ठगति है ही नहीं। अर्जुन! जो नित्य मेरी सेवा करता है, उसके अन्तिम समय में मै उसका दास बनकर रहता हूँ।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।14।।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्र्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।15।।
जो विषयों को तिलांजलि देकर, विषयों सम्बन्धी होने वाली इच्छाओं को नियन्त्रित कर तथा मुझे हृदय में रखकर उस सुख का उपभोग करते हैं, उन्हें उस समाधान में क्षुधा वगैरह का स्मरण नहीं होता। इस प्रकार निरन्तर मेरे ऐक्य स्वरूप को प्राप्त अपना अन्तःकरण मेरे साथ तल्लीन कर तथा तद्रूप होकर जो मेरी ही सेवा करने वाले हैं, उनका अन्तकाल जब निकट आता है तो वे उस समय भी मेरा ही स्मरण करते हैं, तथा मैं उन्हें प्राप्त होता हूँ। देखो! संकट के समय कोई गरीब आदमी शुद्ध हृदय से मेरी गुहार करता है, तो क्या मुझे उसकी पुकार सुनकर नहीं जाना पड़ता? और जो मेरे भक्त हैं उनके प्रति मैं वैसा आचरण करूँ तो फिर वे मेरी भक्ति क्यों करें? वे जिस समय मेरा स्मरण करते हैं, उस समय मैं उन्हें प्राप्त होता हूँ। उसका वह शरीर पुनः प्राप्त नहीं होता।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेप्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।16।।
साधारणतया जिन लोगों को अपने ब्रह्मत्व का अभिमान रहता है उनके भी पुनर्जन्म के फेरे नहीं चूकते। किन्तु जो मुझमें लीन हो गए वे संसार में लिप्त नहीं होते।
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।17।।
चार युग हजार बार बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है और उसी प्रकार हजार चैकड़ियों की वहाँ रात होती है। यहाँ जो भाग्यवान पुरुष हैं, वे मरते नहीं हैं और वे स्वर्ग में चिरंजीवी होकर सबकुछ देखते रहते हैं। किन्तु ब्रह्मा के भी आठ प्रहरों को जो अपनी आँखों से देखते हैं, उन्हें उनके दिन और रात जानने वाला ‘अहोरात्रविद’ कहा जाता है।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तस´्ज्ञके।।18।।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।19।।
जिस समय उस ब्रह्मलोक में दिन का उदय होता है, उस समय माया मंे लीन विश्व इस प्रकार उत्पन होता है कि उसकी गिनती करना कठिन हो जाता है। बाद में उस दिन के चार प्रहर बीत जाने पर वह विश्व समाप्त हो जाता है, और जब पुनः भोर होती है तो पहले की तरह दिन चढ़ने लगता है। इस प्रकार विश्व की रचना होती है। वह ब्रह्मदेव (ब्रह्मा) सृष्टि के बीज का भण्डार है लेकिन वह भी जन्म-मरण के नाप वाला बन गया है। जिस प्रकार वृक्ष बीज रूप में समाया रहता है उसी प्रकार जहाँ प्रकृति में अनेक वस्तुओं का समावेश होता है, उस स्थिति को ‘साम्य’ कहते है। – क्रमशः (हिफी)