
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-8 के श्लोक 20 से 28 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।20।।
आकार का विनाश हो जाने पर विश्व का स्वरूप समाप्त हो जाता है लेकिन जिसके कारण यह हुआ है वह माया विशिष्ट ब्रह्मचेतन वैसा ही रहता है इसलिए उसे ‘अव्यक्त’ कहते हैं और जब वह साकार होता है तब उसे ‘व्यक्त’ कहते हैं। विश्व का नाश हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता। वही ‘परब्रह्म’ है।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।21।।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।22।।
जिसे ‘अक्षर’ या नाश न होने वाला कहते हैं, उससे परे किसी का विस्तार नहीं दिखाई देता और उसी का नाम ‘परमगति’ है लेकिन वह इस शरीर में व्याप्त है और अभी सुप्तावस्था में है। राजा सुख से सोता है तो भी राज्य का व्यापार नहीं रुकता और प्रजा अपनी-अपनी रुचि के अनुसार व्यापार करती रहती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, प्राण का कार्य अपने
आप चलता रहता है। वह शरीर में सुप्तावस्था की तरह शान्त है इसलिए उसे ‘पुरुष’ कहते हैं। हे पांडुपुत्र! जिस प्रकार लकड़ी आग में
डालने से वह आग ही बनकर रहती है, जिस प्रकार चीनी बन जाने पर फिर उसका किसी
भी युक्ति से ईख नहीं बन सकता, लोहे
का पारस-पत्थर से सोना बन सकता है लेकिन उसे फिर लोहे में नहीं बदला जा सकता, घी का फिर से दूध नहीं बन सकता, उसी प्रकार जहाँ पहुँचने पर पुनः जन्म नहीं होता, वही मेरा
परमधाम है।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।23।।
देहावसान के बाद योगी लोग जिस स्वरूप को प्राप्त होते हैं, वह गुप्त रहस्य जानने का एक और सरल मार्ग है। शास्त्रीय दृष्टि से शुद्ध समय में यदि देह का अवसान हुआ हो तो उसी समय वे योगी ब्रह्म हो जाते हैं। साधारणतया असमय में देहावसा हो जाने पर वे पुनः जन्म लेते हैं। मोक्ष और पुनर्जन्न्म ये दोनों काल के वश में है।
अन्गिज्र्योतिरहः शुल्कः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।24।।
शरीर के भीतर की जठराग्नि ज्योति का प्रकाश तथा बाहर उत्तरायण के किसी महीनों के शुक्ल पक्ष का कोई दिन हो, इस प्रकार सभी योग रहते हुए जो ब्रह्माभ्यासी पुरुष अपना देह त्याग करते हैं, वे ब्रह्म स्वरूप में मिल जाते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए यह सरल मार्ग है। इसे उत्तर काल समझो और इसी को शास्त्रों में ‘अर्चिरा मार्ग’ कहा जाता है।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।25।।
जिस समय कृष्ण पक्ष का पखवारा रहता है और उसमें रात्रि और दक्षिणायन के छह महीनों में से एक महीना रहता है, ये सब जन्म-मरण के फेरे में आने वाले योग जिनकी मृत्यु के समय एक साथ इकट्ठा होते हैं, उस समय जिसका देहावसान होता है वह योगी होने के कारण चन्द्रलोक तक जा सकता है। लेकिन वहाँ से लौटकर पुनः जन्म-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। यही ‘धूम्र मार्ग’ है।
शुल्ककृष्णे गती ह्येते जगतः शश्रवते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।26।।
एक सीधा और एक टेढ़ा ये दो मार्ग अनादि काल से चले आ रहे हैं इसलिए मैंने तुम्हें बुद्धि के द्वारा ही ये दो मार्ग दिखाए हैं ताकि इन दो मार्गों में से कौन अच्छा है और कौन खराब है इसे तुम देख सको तथा सच और झूठ जानकर अपना हित साधने के लिए हित और अहित का भी विचार करो। देखो! अगर अच्छी नौका मिल जाए तो क्या कोई गहरे पानी में छलाँग लगाएगा? या राजमार्ग छोड़कर कोई टेढ़े रास्ते पर जाएगा? जो विष और अमृत दोनों को ही पहचानता है वह टेढ़े रास्ते पर नहीं जाएगा।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्र्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।27।।
देह त्याग के बाद ब्रह्म स्थिति प्राप्त होगी ही यह कहना व्यर्थ है। अकस्मात् किस समय क्या होगा, इसका क्या कोई नियम है? इसलिए यह बात रहने दो। देह में रहकर भी जो देह के साथ ब्रह्म हो गए, उन्हीं को विदेही कहना चाहिए। इसलिए तुम योगयुक्त बन जाओ, इससे तुम्हें हमेशा ब्रह्मस्वरूप प्राप्त होगा फिर किसी भी स्थान और किसी भी समय में वह संसार सुख के मोह में नहीं फँसता।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।28।।
भले ही वेदों का अध्ययन कर वैदिक बन जाए, या यज्ञ करके पुण्य की फसल कमा ले, या तप और दान कर सारा पुण्य कमा ले फिर भी निर्मल ब्रह्म की बराबरी नहीं कर सकता। जो योगियों की उपयोगी वस्तु है, जो परमानन्द की केवल मूर्ति है, जो समस्त विश्व के प्राणियों का जीवन है, वही श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा। – क्रमशः (हिफी)