
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-9 के श्लोक 1 से 8 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।1।।
अर्जुन! मेरे अन्तःकरण में जो अत्यन्त गोपनीय ज्ञान का आदि कारण है, उसे तुम्हें पुनः सुनाता हूँ। विशाल अन्तःकरण का, शुद्ध बुद्धि का तथा निंदा न करने वाला कोई एकनिष्ठ भक्त हो तो उसे अपने मन की गुप्त बात भी प्रसन्नता से बता देनी चाहिए। असली और नकली सिक्के एक साथ मिल जाने पर उन्हें जिस प्रकार छाँटकर अलग किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान और विज्ञान तुम्हें अलग-अलग करके बताता हूँ।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धम्र्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।2।।
यह ज्ञान समस्त रहस्यों का स्वामी है, पवित्र वस्तुओं का राजा है, धर्म का अधिष्ठान है इसकी प्राप्ति पर दूसरा जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती, वह ज्ञान गुरू के मुख से तत्त्वमस्यादि महावाक्य द्वारा उदित होते ही शिष्य के हृदय में स्वयमेव उपस्थित होने के कारण उसे सहज ही प्राप्त होता है। वह ज्ञान इतना सुलभ और सरल होते हुए भी साक्षात् परब्रह्म है। वह प्राप्त होने पर नष्ट नहीं होता, अनुभव होने पर कम नहीं होता और न पुराना ही होता है।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि।।3।।
जिस प्रकार किसी अभागे के घर में मुहरों तथा द्रव्य से भरी हुई हजारों कढ़ाईयाँ गाड़कर रखी रहती है, किन्तु वह दरिद्रावस्था में रहता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीवों की आसक्ति विषय-वासनाओं में ही रहती है। जिसके मन पर अहंकार का साम्राज्य है, वे मुझे प्राप्त नहीं होते औरजन्म-मरण के दोनों किनारों के बीच गोता खाते रहते हैं।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4।।
जिस प्रकार दूध जम जाने पर दही बनता है, या बीज का विकास वृक्ष में होता है अथवा सुवर्ण के अलंकार बनते हैं, उसी प्रकार मुझ निर्गुण और अकेले का विस्तार ही विश्व है। मेरा यह अव्यक्त स्वरूप निराकार कहलाता है जो सृष्टि के रूप में विस्तार पाकर आकार लेता है। उसी प्रकार निर्गुण होते हुए भी साकार होने वाला जो मैं हूँ, उसी ने यह त्रैलोक्य बनाया है, ऐसा समझ लो। महत््तत्त्व से लेकर शरीर तक के सारे भूत मेरी ही सत्ता के कारण हैं। ये भूत यद्यपि मुझमें भासित होतेे हैं, किन्तु उनमें मैं नहीं हूँ यह बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5।।
माया से परे जो मेरा स्वरूप है, उसे यदि तुम देखने लगोगे, तो सारे भूतों का अस्तित्व मुझ में है। सब कुछ मैं ही हूँ। मैं अखण्ड होते हुए भी भूत मुझसे अलग दिखाई देते हैं। सोने के गहने बनाने में सोने का सोनापन नष्ट नहीं होता। मन में कल्पना उत्पन्न हो जाने के बाद, अखण्ड ब्रह्मस्वरूप में भूतों का आभार होता है। वास्तव में भूत और मैं एक ही हूँ। जिस प्रकार सूर्य और उसकी प्रभा एक ही है उसी प्रकार मैं और प्राणीमात्र में क्या कोई भेद है? इसलिए मुझसे सारे प्राणीमात्र सचमुच अलग नहीं है, और मैं भी उनसे अलग नहीं हूँ, ऐसा कभी मत समझना।
यथाकाशंस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।6।।
प्राणी मुझमें हैं, ऐसी कल्पना मन में आने पर, मुझमें भूत हैं, ऐसा आभास होता है किन्तु ऐसी कल्पना न करने पर सर्वत्र मैं ही हूँ। इसलिए भूतों का होना और न होना केवल कल्पना पर निर्भर है और जो कल्पना समाप्त होने पर नहीं मालूम होती है तो वह कल्पना उत्पन्न करने वााला अज्ञान समूल नष्ट हो जाने पर भूतों का होना या न होना कहाँ से मालूम होगा? इस अनुभवरूपी समुद्र में तुम स्वयं एक लहर बनकर रहो। अब तुम्हारा द्वैत वाला स्थान समाप्त हो गया न? इसलिए इस कल्पनारूपी राह छोड़ो। शुद्ध बोधरूप ‘मैं ही हूँ’। प्राणीमात्र की उत्पत्ति, स्थिति एवं रूप के लिए कारणीभूत माया ही है।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।7।।
उस माया को ‘प्रकृति’ कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है (जड़ और चेतन)। इस सम्बन्ध में तुम्हें पहले बताया ही गया है। इनमें से पहली ‘अपरा प्रकृति’ आठ प्रकार के भिन्न-भिन्न रूपों में तथा दूसरी ‘परा प्रकृति’ जीवरूप में व्यक्त होती है। यह विषय तुमने पहले सुना है। महाकल्प के अन्त में ये सारे भूत मेरे अव्यक्त स्वरूप में विलीन हो जाते हैं। जिस प्रकार पानी में पैदा होने वाली लहरें पानी में ही अदृश्य हो जाती हैं, या नींद से जागने पर मन का स्वप्न मन में ही अस्त हो जाता है, उसी प्रकार महाकल्प के अन्त में प्रकृति से उत्पन्न हुए ऐ सारे भूत प्रकृति में ही मिल जाते हैं। फिर सृष्टि के आरम्भ में मैं ही उन्हें फिर से उत्पन्न करता हूँ।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।8।।
जिस प्रकार तन्तुओं की बनावट के कारण वह वस्त्र का रूप आकार लेता है, उसी प्रकार माया की लीला के कारण मैं रूप धारण करता हूँ और फिर उस बनावट के आधार पर जिस प्रकार छोटे-छोटे चैकर चार खाने बनते हैं, उसी ही प्रकार प्रकार मेरी ही प्रकृति से नाम रूपात्मक पंच महाभौतिकसृष्टि की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार जामन के संसर्ग से दूध जमने लगता है, उसी प्रकार स्वयं प्रकृति ही सृष्टि का आकार लेने लगती है। जिस प्रकार पानी के सान्निध्य से बीज में से टहनियाँ आदि निकल कर उसका पेड़ बन जाता है, उसी प्रकार प्रकृति का विस्तार मेरे ही कारण होता है। इस भूतसृष्टि का निर्माण करने में मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ता। जिस प्रकार राजा की आज्ञा से प्रजा सारे काम करती रहती है, उसी प्रकार प्रकृति और मेरा सम्बन्ध है। वैसे उत्पत्ति, स्थिति और लय, ये सारे व्यवहार उसी प्रकृति के ही होते हैं। देखो! चन्द्रमा से भेंट होते ही समुद्र में अपूर्व लहरें उठने लगती है, लेकिन अर्जुन! क्या इसमें चन्द्रमा को कोई परिश्रम करना होता है? लोहा भारी होने पर भी, चुम्बक के पास आने पर उसकी ओर बढ़ने लगता है तो क्या चुम्बक को लोहे के पास आने में कोई परिश्रम करना होता है? इसी प्रकार मेरी प्रकृति को अंगीकार करते ही एकाएक प्राणीमात्र की उत्पत्ति होने लगती है। यह सारा प्राणी समुदाय प्रकृति के ही अधीन है। इस सारे विश्व के लिए प्रकृति ही मूल कारण है इसलिए प्राणियों को उत्पन्न करना, उनका पालन पोषण करना इन सारी बातों का कर्तव्य मुझ पर नहीं आता। कर्म मुझसे उत्पन्न होते हुए भी मुझसे दूर ही रहते हैं।- क्रमशः (हिफी)