
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-3 के श्लोक 20 से 31 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
कर्म का त्याग किए बिना जनक जैसे मुनियो ने मोक्ष प्राप्त कर लिया इसलिए हे पार्थ! तुम कर्म में आस्था रखो। उस कर्म का स्वतः आचरण करने से उन लोगों को भी उचित व्यवहार करने की शिक्षा मिलेगी जिससे उनके दुःख स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। जो निष्काम हो गए हैं उन्हें लोगों का उपकार करने का कर्तव्य शेष रह गया है। इसलिए ज्ञानीजन को स्वधर्म का पालन करते हुए अज्ञानी जनों को धर्म का स्वरूप स्पष्ट कर योग्य मार्ग
दिखाना चाहिए। जब ज्ञानी लोग ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे तो अज्ञानी लोगों की समझ में कैसे आएगा?
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तŸादेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
इस लोक में श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं, उसे ही धर्म का नाम देकर अन्य लोग उसका आचरण करते हैं, यह स्वाभाविक ही है। इसलिए बड़े लोगों को कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए और साधुसन्तों को तो कर्मों का आचरण विशेष रूप से करना होता है।
न मे पार्थांस्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
हे अर्जुन! मेरे लिए इन तीनों लोगों में कुछ भी प्राप्त करने योग्य वस्तु नहीं है न कुछ कर्तव्य ही है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
लेकिन उस एक लोक कल्याण के उद्देश्य से ही जैसे कोई सक्षम पुरुष धर्माचरण करता है, उसी प्रकार मैं स्वधर्म का आचरण करता हूँ। क्योंकि सारे प्राणी मुझ पर निर्भर हैं। इसलिए उन्हें कर्मभ्रष्ट नहीं होना चाहिए।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सांकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
हम निष्काम होकर यदि आत्मानन्द में ही रह गए और धर्माचरण न किया तो प्रजा का भवसागर से उद्धार कैसे होगा? वास्तविक सम्प्रदाय तो यह है कि लोग हमारा व्यवहार देखें और धर्म का आचरण करना सीखें। लोगों का जो यह रहने का ढंग है वह हमारे धर्माचरण न करने से बिगड़ जाएगा। इसलिए कर्म का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए।
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्।।25।।
फल की इच्छा करने वाला पुरुष जिस प्रकार कर्माचरण करता है, उसी प्रकार ज्ञानियों को भी कर्माचरण पर अधिक जोर देना चाहिए क्योंकि हे पार्थ! आगे आने वाले लोकसमुदाय की रक्षा करना आवश्यक है। इसलिए बड़ों को चाहिए कि खुद भी सन्मार्ग पर चलें तथा दूसरों को भी धर्म के मार्ग पर ले आएँ।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसग्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
इसी प्रकार कर्माचरण करके चित्त शुद्ध होने से पहले उन्हें नैष्कर्म ब्रह्म स्थिति का ज्ञान नहीं देना चाहिए क्योंकि जो बच्चा बड़ी मुश्किल से स्तनपान कर पाता है वह पकवान कैसे खा सकता है? उसी प्रकार जो कर्माचरण करने के लिए भी अधिकारी नहीं है, उसे तो हँसी में भी ज्ञानमार्ग का महत्व नहीं बताना चाहिए। उससे सत्कर्म का ही आचरण करवाना चाहिए। सत्कर्म की ही प्रशंसा करनी चाहिए और निष्काम हुए लोगों को भी सत्कर्म करके दिखाना चाहिए। वर्णाश्रम धर्म की रक्षा के लिए कर्म-मार्ग का आचरण करते समय उन्हें कर्म का बन्धन नहीं भोगना पड़ेगा।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
दूसरे का बोझ यदि अपने सिर पर ले लिया जाए तो क्या हमारी गर्दन में दर्द नहीं होगा? उसी प्रकार प्रकृति के गुणों के कारण जो अच्छे या बुरे कर्म उत्पन्न होते हैं, उनका कर्ता मैं ही हूँ, ऐसा अज्ञानी पुरुष भ्रमवश समझता है। अपने शरीर पर अभिमान करने वाले पुरुष को नैष्कर्म स्थिति का गूढ़ रहस्य प्रकट नहीं करना चाहिए।
तŸवविŸाु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
जिसके कारण सभी कर्मो की उत्पत्ति होती है, वह देहाभिमान तत्व ज्ञानियों में नहीं होता। वे ज्ञानीजन देह का अभिमान छोड़कर तथा गुण और कर्म का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध जानकर तटस्थ वृत्ति से शरीर में रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य संसार को प्रकाश देते हुए भी दुनिया के क्रिया-कलापों में भाग नहीं लेता, उसी प्रकार वे भले ही शरीर धारण करते हों, लेकिन उनके शरीर कर्म से बँधे नही रहते।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।29।।
प्रकृति के अधीन रहकर जो आचरण करता है, तथा गुणों की संगत में रहता है, वही कर्म में लिप्त होता है। इन्द्रियाँ गुणों के अधीन अपने कार्य में रत रहती है। उन्हें वह दूसरों का कर्म ‘मैं कर रहा हूँ’ कहकर अपने ऊपर लाद लेता है। ज्ञानी उन्हें विचलित न करे।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।30।।
इसलिए तुम इस प्रकार के विहित कर्मों का आचरण कर मुझे अर्पित करो, लेकिन चित्तवृत्ति को हमेशा आत्मस्वरूप में बनाए रखो। इस कार्य का कर्ता मैं हूँ और अमुक फल प्राप्ति के लिए यह कर्म कर रहा हूँ, ऐसा अभिमान अपने चित्त में मत आने दो। शरीर के अधीन मत रहो और सभी इच्छाओं को त्याग दो तथा सभी भोगों का समय आने पर उपभोग करो। इसके लिए तुम हाथ में धनुष लेकर रथ पर बेठों और प्रसन्नता से वीरवृत्ति को स्वीकार करो। संसार में अपना यश बढ़ाओं स्वधर्म की महिमा बढ़ाओ और दुर्योधन जेसे दुष्टों के भार से पृथ्वी को मुक्त करो। हे पार्थ ! अब तुम निःशंक होकर युद्ध की ओर ध्यान दो।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।31।।
अर्जुन! मेरे इन मतों को जो स्वीकार करेंगे तथा श्रद्धापूर्वक आचरण करेंगे, वे सभी कर्मों का आचरण करके भी कर्म रहित हैं, यह समझ लो।- क्रमशः (हिफी)