अध्यात्म

शिव की महिमा व्यापक अभिव्यक्ति

(मोहिता स्वामी-हिफी फीचर)
भारत की संस्कृति उपासना की है। इसको ही गोस्वामी तुलसीदास ने ‘सीय राममय सब जग जानी…’ कहकर आधुनिक समाज को शिक्षा दी है। हम नदियों की पूजा करते है, वृक्षोें की पूजा करते हैं और संगीत की भी उपासना करके मां सरस्वती को नमन करते हैं। इसी परिपाटी में भगवान शिव हैं जिनकी व्यापक अभिव्यक्ति है। वह अरण्य संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक हैं तो समाजवादी देवता हैं। उनकी उपासना हर कोई कर सकता है। उनका अस्तित्व सिर्फ आराध्य के रूप में नहीं है बल्कि हलाहल को पी जाते हैं। संगीत-नृत्य में भी शिवत्व समाया हुआ है। शिव के कई अर्थ बताये जाते हैं। इनमें शुभ, अशुभ कल्याण करने वाला महाकाल आदिदेव, किरात, शंकर, चंद्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ मृत्यंजय, त्रयंबक, महेश, महारुद्र, नीलकंठ, भूतनाथ और उमापति जैसे नाम अलग-अलग अभिव्यक्ति देते हैं। हिन्दू धर्म में भगवान शिव की पूजा-अर्चना का जितना महत्व है उतना ही उनके गले में लिपटे सर्प, त्रिनेत्र, त्रिशूल, मस्तक पर अर्ध चंद्र और साथ में नंदी की उपस्थिति भी एक विशेष आयाम देती है। भगवान शिव के गले में सांप लिपटे हुए होते हैं। भगवान शिव के गले में सांप सजगता का प्रतीक होता है। यह पुनर्जन्म, परिवर्तन और अमरत्व को दर्शाता है। शिवजी का डमरू ब्रह्मांड का प्रतीक है। सृष्टि का नियम है कि ब्रह्मांड का विस्तार होगा और फिर विलीन होगा। भगवान शिव का डमरू खुशियों और सुख-समृद्धि का संकेत माना जाता है। मान्यता है, जिस घर में नियमित डमरू बजता है वहां कभी अमंगल नहीं होता है। भगवान शिव के मस्तक पर अर्धचंद्र मन का प्रतीक है। चंद्रमा का बढ़ता-घटता आकार उस चक्र का प्रतीक माना जाता है, जिसमें सृष्टि का निर्माण होता है। अर्धचंद्र मन
को नियंत्रित करने का संकेत देता है। त्रिशूल का मतलब सभी पीड़ाओं का अंत करने वाला होता है। जीवन स्तर पर आदिभौतिक (शारीरिक),
आध्यात्मिक (मानसिक) और आदिदैविक (अदृश्य) सभी कष्टों का और दुखों का अंत त्रिशूल से होता है, जिसके नियंत्रक भगवान शिव माने जाते हैं। त्रिशूल का इस्तेमाल बुरी शक्तियों के संहार के लिए किया जाता है। त्रिशूल सत्व, रज और तमस गुणों का प्रतीक भी माना जाता है।भोलेनाथ की सवारी नंदी धर्म, शक्ति और प्रतीक्षा का प्रतीक माना गया है। यह भक्तिभाव को दर्शाता है। भगवान शिव के नंदी को नैतिकता का संरक्षक माना जाता है। रुद्राक्ष का निर्माण भगवान शिव के आंसुओं से हुआ है। रुद्राक्ष का इस्तेमाल ग्रहों की शांति, आभूषण और आध्यात्मिक लाभों के लिए किया जाता रहा है। इसका उपयोग मेडिटेशन करने के लिए भी किया जाता है। भगवान शिव के तीसरे नेत्र का मतलब जागरुकता है। शिवजी की तीसरी आंख आध्यात्मिक दुनिया और ज्ञान की शक्ति का संकेत भी दर्शाती है। भगवान के त्रिनेत्र आत्मज्ञान का भी प्रतीक माना जाता है।त्रिपुंड का मतलब भगवान शिव के माथे पर तीन समांतर रेखा से बना तिलक होता है। शिवजी के इस त्रिपुंड तिलक को सतोगुण (शुद्धता, संतुलन, और दयालुता), रजोगुण (संदेह, जुनून और अभिमान) और तमोगुण (विनाश, आलस, अशुद्धता) का प्रतीक माना जाता है।
इस प्रकार भारतीय सभ्यता और संस्कृति में भगवान शिव की व्यापक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। शिव का अस्तित्व केवल एक आराध्य देव के रूप में ही नहीं, बल्कि एक आदर्श, एक तत्त्व और एक दर्शन के रूप में भी है, जो भारतीय जीवन के हर पहलू में समाहित हैं। भारतीय अध्यात्म में शिव को सृजन, पालन और संहार की त्रयी का अभिन्न अंग माना गया है। वे योग, ध्यान और मोक्ष के प्रतीक हैं। उनकी तपस्या भारतीय ध्यान परंपरा को दर्शाती है, जबकि तांडव नृत्य सृष्टि की गति और जीवन चक्र का प्रतीक है। भारतीय कला, साहित्य और नृत्य में शिव की उपस्थिति अद्वितीय है। नटराज के रूप में वे नृत्य और संगीत के जनक माने जाते हैं। शिव से प्रेरित भजन, स्तोत्र और काव्य भारतीय साहित्य की
समृद्ध धरोहर हैं। सांस्कृतिक रूप से, शिव भारत की विविधता में एकता का प्रतीक हैं। वे जनजातीय समाजों से लेकर उच्च वेदांत दर्शन तक सभी परंपराओं में पूज्य हैं। उनका रूप सादगी का संदेश देता है। भारतीय लोकजीवन में भी शिव सहज रूप से व्याप्त हैं। शिवरात्रि, कांवड़ यात्रा और बारह ज्योतिर्लिंगों की उपासना भारतीय धार्मिक परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं। इस प्रकार, भारतीय सभ्यता का हर पक्ष शिवमय है।
भारतीय वाड्मय, आस्था, पर्व, त्योहार, उपासना पद्धति, स्थापत्य, कला, संगीत, नृत्य आदि सभी क्षेत्रों में शिवत्व समाहित है। सर्वाधिक पुराणों की रचना शिवतत्त्व को केंद्र में रखकर की गई है। स्कंद पुराण का काशीखंड शिवजी के महत्व का प्रकाशक है। सर्वाधिक उत्सव शिवजी की आराधना को समर्पित हैं। संस्कृत भाषा में लिखित सर्वाधिक स्तोत्र शिवजी की उपासना में ही लिखे गए हैं।
भगवान शिव एक रहस्यमय ऊर्जा का प्रतीक हैं, जो सृष्टि को चलायमान रखती है। यह ऊर्जा हर जीव के भीतर है और हमें जीवन जीने की शक्ति देती है। वैज्ञानिक आज भी इस अज्ञात शक्ति का नाम नहीं खोज पाए हैं, परंतु प्राचीन ऋषि और संत इसे ‘शिव’ कहते आए हैं। यह न केवल जीवित प्राणियों में कार्य करती है, बल्कि निर्जीव वस्तुओं को भी चलायमान बनाए रखती है।
भारत की अरण्य संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक भगवान शिव हैं। वे अकेले ऐसे देव हैं जो सह अस्तित्व के सबसे बड़े पोषक हैं। वे गृहस्थ हैं, लेकिन जोगी हैं, वे आशुतोष हैं तो प्रलयकारी भी। शिव यह ज्ञान देते हैं कि जो भी भयकारक है उससे अभय हो। वे देवों के देव हैं, महादेव हैं, वे अनादि हैं और मूल भी हैं। लोक में सर्वाधिक महत्व भगवान शिव का है।
महाशिवरात्रि पर्व केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि चेतना को जागृत करने का अवसर है। यह रात ध्यान और साधना के लिए सबसे उपयुक्त होती है, जब ग्रहों की स्थिति से ऊर्जा का प्रवाह हमारे भीतर तेजी से होता है। इस दिन साधना करके हम अपनी प्राण ऊर्जा को जागृत कर सकते हैं और शिव तत्व से जुड़ सकते हैं। महाशिवरात्रि को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जैसे इस दिन भगवान शिव ने देवी पार्वती से विवाह किया था। दूसरी कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण कर संसार की रक्षा की थी। यह रात शिव की शक्ति और त्याग का प्रतीक है, जो हमें आत्मचिंतन और ध्यान की ओर प्रेरित करती है। महाशिवरात्रि की रात को जागरण और ध्यान का विशेष महत्व है।
हिन्दू परम्परा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति प्रतिदिन ध्यान नहीं कर पाता, तो कम से कम महाशिवरात्रि की रात को अवश्य ध्यान करना चाहिए। यह रात ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित करने और उसे जागृत करने का एक अद्वितीय समय होता है। ध्यान के माध्यम से हम अपने भीतर की ऊर्जा को शिव तत्व से जोड़ सकते हैं, जिससे जीवन में शांति और सामंजस्य आता है। जिस प्रकार शिव शास्त्र, विज्ञान, योग और ज्ञान के आचार्य हैं, उसी प्रकार नृत्य के जन्मदाता माने जाते हैं। इसी से उन्हें नटराज भी कहा जाता है। शिव के नटराज का रूप आध्यात्मिक है
और शक्ति का प्रतीक माना जाता है। प्रभामंडल माया का, शिव के हाथ पैर का स्पर्श उसमें शक्ति के संचार का प्रतीक है, यह विश्व की गतिमान होने का कारण भी है। (हिफी)

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