
यह समस्त ब्रह्मांड ऊर्जा से निर्मित है। विज्ञान का कथन है कि समस्त पदार्थों के छोटे-छोटे घटक करते हुए उन्हें पदार्थ की सबसे छोटी इकाई, जिसे परमाणु कहते हैं, में बांटा जा सकता है। इस प्रकार से आप और मैं एक ही हैं, कम से कम मात्रात्मक रूप में से तो हैं ही।
लेकिन तब यह प्रश्न उठता है कि यदि सब कुछ ऊर्जा ही है तो इस ऊर्जा को आकार कौन देता है, यह कौन तय करता है कि फलां वस्तु सोना होगी या वह वस्तु पर्वत बनेगी? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के अनुसार समय के आरंभ में जब पृथ्वी का निर्माण हो रहा था, ज्वालामुखी और भूकम्प सतह को उद्वेलित कर रहे थे, जीवन का उद्गम एक संयोग वश हुई घटना थी, एक विचारयोग्य संयोग, जब कुछ विशिष्ट पदार्थों, के एक विशिष्ट समय में आपसी मिलन से जीवन का उदय हुआ। फिर विकास आरंभ हुआ और अब तो लोग तथा घटनाएं एक दूसरे को बढ़ावा देते हुए परिवर्तन कर रहे है और यह जारी है।
लेकिन बाबा जी के अनुसार कुछ भी संयोग वश नहीं है। जो कुछ भी हमारे आसपास है वह चेतना के फलस्वरूप है। वह कहते हैं कि वास्तव में मानवीय विचार अपने चारों ओर के पदार्थ को आकार देते हैं। अपने जीवन के चारों ओर बिखरे ब्रह्मांड की अनन्त एवं प्रचुर ऊर्जा का आकार तथा मात्रा हम तय करते हैं। कुछ भी भला या बुरा नहीं सभी सापेक्ष है।
जब कोई व्यक्ति बाबा जी से कहता है कि कोई व्यक्ति का बुरा है तो बाबा जी कहते हैं कि वह सिर्फ तुम्हारे लिए बुरा है। हो सकता है अपने पुत्र के लिए वह एकदम सही हो।
दूसरा कहता है अर्थ व्यवस्था बुरी है, नहीं यह बुरी नहीं है कई ऐसे लोग हैं जो बहुत कमा रहे हैं। यह आर्थिक व्यवस्था सिर्फ तुम्हारे लिए बुरी है।
कोई और कहता है उसका शरीर अस्वस्थ है, बाबा जी का कहना है तुमने इसे बीमार किया है कोई और कहता है शनि खराब है, बाबा जी कहते हैं वह सिर्फ तुम्हारे लिए खराब है, क्योंकि ग्रह तो हमेशा की तरह अपने परिपथ में घूम रहे हैं।
ब्रह्मांड महज अपना काम कर रहा है, आपको शरीर चलाने के लिए ऊर्जा, मस्तिष्क, चेतना, जरूरी पदार्थ दे रहा है, अब तुम इसका क्या करते हों, बाबा जी कहते हैं-यह पूर्णतया तुम्हारी जिम्मेदारी है।
उनका दर्शन स्पष्ट है-तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। यह सही भी है, क्योंकि हमारे चारों ओर जो भी है वह हमारे सोच का फल है। इस होटल में जहां मैं बैठा हूं सर्व प्रथम किसी का स्वप्न रहा होगा जिसे उसने साकार किया। यह जो लैपटाप मैं प्रयोग करता हूं यह किसी और के दिमाग की उपज है। मेरे कम्प्यूटर का साफ्टवेयर भी किसी के मस्तिष्क की उत्पत्ति पहले है, बाद में इस कम्प्यूटर में आया।
पहले लोग शरीर तथा दिमाग की बात करते थे। मस्तिष्क को सिर से उत्पन्न हुआ बताते थे लेकिन तंत्रिका विज्ञान तथा मनोविज्ञान ने यह निश्चय किया है कि शरीर तथा मस्तिष्क के मध्य एक पूर्ण जुड़ाव है अर्थात वे आपस में बंधे हैं। तुम जैसा सोचते हो शरीर पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसे स्वप्नों से या संभावनाओं के जाल से व्यग्रता होती है। उसी तरह से शरीर के परिवर्तनों का मस्तिष्क पर असर होता है।
हमारे चारों ओर जो भी है वह हमारी चेतना की उपज है। कोई भी घटना मूर्त रूप लेने से पूर्व हमारे मस्तिष्क में सक्रिय होती है। हमारे अवचेतन में बराबर विचारों की धारा प्रवाहित होती रहती है। हमारे मस्तिष्क में सक्रिय होती है। हमारे मस्तिष्क का हमारे शरीर पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हमारा व्यवहार स्वतः ही उसके अनुरूप हो जाता है, जैसे ड्राइव करते समय हर कार्य स्वयंमेव होता रहता है। ऐसे ही नकारात्मक सोच का असर भी हमारे ऊपर होता है क्योंकि हम में से कुछ ने स्वयं को ऐसा बना लिया है। अपने इसी उपचेतन की सोच से हमारी समझ चलती रहती है और स्वास्थ्य से लेकर बीमारी, जीवन सभी की प्रभावित करती है। इस तरह से हम जाने या अनजाने कुछ न कुछ निर्माण करते रहते हैं। इसका सीधा तात्पर्य है कि हमारा मस्तिष्क हमारे चारों ओर जो कुछ भी है, हमारे शरीर हमारे सम्बंध, हमारे कार्य सभी का निर्माता है। स्पष्ट है कि यदि मैं अपना मस्तिष्क अपने विचार बदलूं तो मैं अपनी जिन्दगी बदल सकता हूं। जब कोई शिव योग का पालन करता है तो वह ऐसा ही करता है।
यह कैसे कार्य करता है-बाबा जी हमें हमारे विचार बदलने के लिए प्रेरित करते हैं और सब कुछ वाकई बदल जाता है। यही कारण है कि बाबाजी चुनने की शक्ति को बहुत महत्व देते हैं। उनका कहना है कि अपने विचार चुनो, अपनी जिन्दगी चुनो। समय काटने के लिए कुछ भी नहीं। हरेक क्रिया की बराबर प्रतिक्रिया होती है। अपने को इस तरह संवारों कि तर्क और भावना में जब भी तकरार हो सदा तर्क की ही विजय हो। तभी हम अपने उपचेतन के प्रोग्रामिंग को बदल कर तार्किक मानव बन सकते हैं और भावना से बने जीवन से मुक्त हो सकते हैं।
मैंने अफ्रीका में जो अनुभव किया वह मैं आपसे बांटना चाहूंगा। मैं शेरों के व्यवहार का अनुसंधान कर रहा था तब मैंने इस घटना को देखा और पाया कि मानवीय तथा पशुओं का सामाजिक व्यवहार कितना समान है। अगर आप शेरों, भेड़ियों या अन्य जानवरों के झुंडों का
अध्ययन करें तो आप पाएंगे कि हर झुंड में एक अल्फा नर होता है जो लीडर होता है। सभी नरों में अल्फा बनने की होड़ होती है। लेकिन यह शीर्षक अस्थिर है क्योंकि जैसे ही कोई कम उम्र नर जो बलशाली भी हो झुंड में आता है वह पुराने अल्फा को हराकर भगाकर नए अल्फा बन जाता है। अल्फा का मतलब सारी मादाएं और बूढ़े व शक्तिहीन नर अपने नियंत्रण में होते हैं। यही नहीं आप पाएंगे कि झुंड के आसपास हारे भगाए गए अल्फाओं का एक झुंड और मंडराता रहता है जो हारी थकी निगाहों से झुंड को ताकता रहता है कि कब उन्हें अल्फा को भगाने का अवसर मिले। जब दो झुंड मिलते हैं तो दोनों के अल्फा आपस में जंग लड़ते हैं क्योंकि वे साथ नहीं रह सकते। अर्थात महज झुंड के नेता बनने के लिए ही वे एक दूसरे को मार देते हैं।
हो सकता है कि आप इसे पशुवत व्यवहार समझें कि झुंड बनाना, अगर विरोधी दुर्बल हो तो उससे लड़ना नहीं तो भागकर जान बचाना और फिर मौके की तलाश में रहना कि उसे परास्त किया जा सके। लेकिन अगर गौर करें तो यह सभी हमारे चारों ओर भी है। हरेक मानव अपना जीवन जीता है और अल्फा बनने के प्रयास में लगा रहता है और उसकी भी यही इच्छा रहती है कि वह अपना झुंड बनाए नेता बने, ज्यादा से ज्यादा लोगों पर प्रभुत्व जमाए, जिन्हें नापसंद करे उन्हें भगा दे, अपने धन, ताकत और नाम से कमजोरों को दबाए भले ही वह उसके कर्मचारी हों या परिवार का नौकर चाकर इत्यादि। अगर कोई उससे ताकतवर मिल जाता है तो वह भी वही भागना दूर से विरोधी पर आक्षेप, मन में दुर्भावनाएं बनाए रखना औरा मौका मिलते ही हमला करना या पलायन कर जाना इसी फिराक में रहता है। दूसरों पर प्रभुत्व जमाना स्वयं को उनसे ऊंचा होने की भावना देता है जो मन में पाशविक इच्छाओं को भड़काती है। मन भी इसी प्रकार अल्फा बनने का प्रयास करता रहता है। हम अपना समय भांपते हैं तथा अपना मौका आने के अवसर खोजते हैं और अपने विचारों में ऊंचे होने का प्रयास करते हैं कौन हमारे पक्ष में है कौन विपरीत और इस प्रकार हम भी अपना झुंड बनाते हैं। सिर्फ यही एक नियम है यदि कोई हमारे मन की नहीं कर रहा तो वह अवश्य ही मूर्ख होगा।
आइये नाम का जिक्र करें, नाम जो एक दूसरे को पहचानने मात्र का रूप है। लेकिन यह भी इससे बहुत बड़ा ऊंचा बन गया है। लोग नाम में स्टेटस ढूंढते हैं अपने सरनेम में अपने गोत्र में गर्व महसूस करते हैं, और लोगों को नीची दृष्टि से देखते हैं कि मैं ऊंची जात का हूं वह नीची का, मेरा यह नाम है तुम्हारा वह, मैं इस झुंड का हूं, तुम उस झुंड के। हम मानव हैं लेकिन अपने पशु स्वभाव को छोड़ नहीं पाए हैं। बाबाजी का कहना है कि हमें इन तुच्छ विचारों से मुक्त होना आवश्यक है।
गोत्र क्या है-हम जिस ऋषि के वंशज हैं गोत्र उन्हीं का नाम है। लेकिन यह ऋषि आए कहां से? ब्रह्मांड की उसी अनन्त ऊर्जा से, उसी से जिससे हम प्रार्थना करते हैं, वही ऊर्जा जिसे कई नामों से जाना जाता है। वही अनन्त जिसे हम शिव कहते हैं- तो मैं कहां से आया हूं? शिव से ही। इससे तो विज्ञान भी सहमत हैं कि हम ऊर्जा से ही निकले हैं और ऊर्जा में ही समा जाएंगे। यानी सब कुछ ऊर्जा ही है। यही बाबा जी कहते हैं, समाज के ज्ञान को स्वीकारो उसकी बुराइयों को नहीं अगर मैं अपने नाम से चिपका रहता हूं तो इसका तात्पर्य है कि उन सबसे जो मेरे झुंड के नहीं हैं उनसे भेदभाव रखता हूं । लेकिन मैं एक बात आपको बताऊं नीची जात कुछ भी नहीं, सिर्फ एक नाम है ऐसे ही ऊंची जात भी एक नाम मात्र है और कोई भी व्यक्ति अपने नाम नहीं अपने कर्मों से जाना जाता है। विभिन्न जातों से सिर्फ दुर्भावनाएं उत्पन्न होती हैं जो झुंड मानसिकता तथा पाशविक व्यवहार करने के निर्णय को बढ़ावा देती हैं। विकास आवश्यक है और यही समय है कि सब शिवयोगी मिलकर विकसित हों। मैं अनन्त का पुत्र हूं और मुझे अपने उद्गम स्थल पर गर्व होना चाहिये और पशुवत जिस इच्छा से अल्फा बनने की जरूरत महसूस होती है उससे उदासीन बनना चाहिये।
वास्तव में सिर्फ एक विश्व हो, एक चेतना, एक धर्म निर्बाध प्रेम का, स्वीकृति और विकास का
बाबाजी ने महान साधना तथा समझ से प्राप्त अपने नाम को निर्बाध प्रेम में फलस्वरूप बांट दिया है यह नाम है शिवानन्द। शिवानन्द जो भगवान को प्रिय है, जो स्वयं भगवान से प्राप्त है, जो भीतर के प्रभु को जागृत करेगा। जो भी श्री विद्या साधना के पथ पर चलेगा को यह विश्वास रखता है कि वह अपना भाग्य स्वयं बनाएगा। वह जो सबमें भगवान को देखता है वह जो बराबर विकसित हो रहा है वह जो अन्वेषण अभिनव में विश्वास रखता है। जो हमेशा जुड़ा है और प्रेम तथा ख्याल रखता है।
कोई महज जीव विज्ञान से पुत्र नहीं बनता, जैसे प्रहलाद भगवान विष्णु के पुत्र अपनी पसंद से बना। जिस दिन मैंने जन्म लिया मुझे ईशान रात्र कहा गया। जिस दिन मैंने वास्तव में उनका पुत्र बनना तय किया मैं ईशान शिवानन्द बन गया।
जो मैं सोचता हूं मैं वही हूं, जो मैं सोचता हूं मैं वही बनता हूं ओर मैं जानता हूं कि मैं ब्रह्मांड पुत्र हूं। मुझे अपनी ऊर्जा तथा संभावनाओं को विकास एवं उत्थान में प्रयोग करना होगा न कि अपनी पाशविक इच्छाओं जैसे लड़ना और भागने मंे।
मैं सारे शिवयोगियों को अपने भाई-बहन बनने के लिए आमंत्रित करता हूं, ताकि सब एक सर्वमान्य भगवान, अनन्त ऊर्जा शिव के तले जुड़ें। एक सर्वधर्म शिवयोग के तले एक पिता, हमारे प्रिय बाबाजी और एक ही नाम शिवानन्द। आइये हम सब प्रण लें कि हम इस वर्ष को महान परिवर्तन तथा विकास का वर्ष बनाएंगे और मैं इस प्रण को यह कहकर शुरू करता हंू कि मैं अपनी सभी पशुवत इच्छाओं से मुक्त होकर शिवानन्द बनूंगा-प्रकाश पुत्र। (हिन्दुस्तान समाचार फीचर)